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[ तीसरा अध्याय
के पशुओं
(४) बन्दिग्रहण - बन्दि शब्द से उस व्यक्ति का ग्रहण होता है - जिसे कैद (पहरे में बन्द स्थान में रखना, कारावास की सजा दी गई है, कैदी । बन्दियों का ग्रहण – अपहरण बन्दिग्रहण कहलाता है । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति राजा के अपराधियों को भी चुरा कर ले जाता था । (५) पान्थकुट्ट - पान्थ शब्द से पथिक का बोध होता है । कुट्ट उन को ताड़ित करना कहलाता है । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति मार्ग में आने जाने वाले व्यक्तियों को धनादि छीनने के लिये पीटा करता था ।
(६) खत्तखनन - खत्त यह एक देश्य- देशविशेष में बोला जाने अर्थ है - सेन्सेन्ध का खनन - खोदना खत्तखनन कहलाता है । तात्पर्य यह है लोगों के मकानों में पाड़ लगा कर चोरी किया करता था ।
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श्री विपाक सूत्र -
( चुराना) गोग्रहण कहलाता है । तात्पर्य यह है कि - विजयसेन चोरसेनापति लोगों को चुरा कर ले जाया करता था ।
(१) उत्पीडयन् - उत्कृष्ट पीड़ा का
ग्रामघात, नगरघात, इत्यादि पूर्वोक्त क्रियाओं के द्वारा चोरसेनापति लोगों को दुःख दिया करता था । दुःख देने के प्रकार ही सूत्रकार ने - "श्रोवीलेमाणे " इत्यादि पदों द्वारा अभिव्यक्त किये हैं। उन की व्याख्या निम्नोक्त है -
वाला, पद है । इस का कि विजयसेन चोरसेनापति
नाम उत्पीड़ा है । अर्थात् विजयसेन चोरसेनापति
लोगों को बहुत दुःख देता हुआ ।
(२) विधर्मयन् - धर्म से रहित करता हुआ । तात्पर्य वह है कि दानादि धर्म में प्रवृत्ति धनादि के सद्भाव में ही हो सकती है । परन्तु विजयसेन चोरसेनापति लोगों की चल और अचल दोनों प्रकार की ही सम्पत्ति छीन रहा था, उन्हें निर्धन बनाता रहता था । तब धनाभाव होने पर दानादिधर्म का नाश स्वाभाविक ही है । इसी भाव को सूत्रकार ने विधर्मयन् पद से अभिव्यक्त किया है । (३) तर्जयन् - तर्जना का अर्थ है, डांटना, धमकाना, डपटना । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों को धमकाता हुआ या लोगों को - याद रखो, यदि तुम ने मेरा कहना नहीं माना तो तुम्हारा सर्वस्व छीन लिया जाएगा, इत्यादि दुर्वचनों से तर्जित करता हुआ ।
(४) ताडयन् - ताडना का अर्थ है कोड़ों से पीटना | तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों को चाबुकों से पीटता हुआ ।
"नित्थाणे” – इत्यादि पदों का भावार्थ निम्नोक्त है
(१) निःस्थान - स्थान से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उन के घर आदि स्थानों से निकाल देता था ।
(२) निर्धन - धन से रहित अर्थात् विजय चोरसेनापति लोगों को उनकी चल और अचल दोनों प्रकार की सम्पत्ति छीन कर धन से खाली कर देता था ।
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(३) निष्कण-कण से रहित । कण का अर्थ है--गेहूं, चने आदि धान्यों के दाने । तात्पर्य यह है कि विजयसेन चोरसेनापति लोगों का समस्त धन छीन कर उन के पास दाना तक भी नहीं छोड़ता था । " कप्पायं " - पद की व्याख्या श्री अभयदेव सूरि ने - कल्पः उचितो य श्रायः - प्रजातो द्रव्यलाभः स कल्पायोऽतस्तम् - इन शब्दों द्वारा की है। अर्थात् कल्प का अर्थ है - उचित । और श्राय शब्द लाभ - आमदनी का बोधक है । तात्पर्य यह है कि राजा प्रजा से जो यथोचित कर - महसूल
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