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तीसरा अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सिहत ।
[२०३
आदि के रूप में द्रव्य--धन ग्रहण करता है, उसे कल्पाय कहते हैं । विजयसेन चोरसेनापति का इतना साहस बढ़ चुका था कि वह लोगों से स्वयं ही कर-महसूल ग्रहण करने लग गया था।
सारांश यह है कि - प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट वर्णित है कि विजयसेन चोरसेनापति प्रजा को विपत्तिग्रस्त करने में किसी प्रकार की ढील नहीं कर रहा था। किसो को भेदनीति से, किसी को दण्डनीति से संकट में डाल रहा था, तथा किसी को स्थान-भ्रष्ट कर, किसी की गाय, भैंस आदि सम्पत्ति चुरा कर पीड़ित कर रहा था । जहां उस का प्रजा के साथ इतना कर एवं निर्दय व्यवहार था, वहां वह महाबल नरेश को भी चोट पहुंचाने में पीछे नहीं हट रहा था । अनेकों बार राजा को लूटा, उसके बदले प्रजा से स्वयं कर वसूला। यही उस के जीवन का कर्तव्य बना हुआ था।
विजयसेन चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की बड़ी सुन्दरी भार्या थी और दोनों को सांसारिक आनन्द बहुंचाने वाला अभग्नसेन नाम का एक पुत्र भी उनके घर में उद्योत करने वाला विद्यमान था । वह जैसा शरीर से हष्ट एवं पुष्ट था, वैसे वह विद्यासम्पन्न भी था।
- अहीण-" यहां दिये गये बिन्दु से -"पडिपुराण पंचिंदियसरीरा, लक्खणवंजनगुणोववेया-, से लेकर "-पियदसणा सुरूवा-" यहां तक के पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १०५ के टिप्पणं में को जा चुकी है।
____ "विण्णाय-परिणयमित-इस पद की "-विज्ञात-विज्ञानमस्यास्तीति विज्ञातः, परिणत एवं परिणतमात्रः-परिणतिमापन्नः, विज्ञातश्चासौ परिणतमात्रः-इति विज्ञातपरिणतमात्रः। परिणतिः-अवस्थाविशेष इति यावत् -" ऐसी व्याख्या करने पर"-विशिष्ट जानवाले व्यक्ति का नाम विज्ञात है तथा अवस्थाविशेष-प्राप्त व्यक्ति को परिणतमात्र कहते हैं-" यह अर्थ होगा। प्रस्तुत प्रकरण में अवस्था-विशेष शब्द से बाल्यावस्था के अतिक्रमण के अनन्तर की अवस्था विवक्षित है । तात्पर्य यह है कि यौवनावस्था से पूर्व की और बाल्यावस्था के अन्त की अर्थात् दोनों के मध्य की अवस्था वाले व्यक्ति का नाम परिणतमात्र होता है।
तथा "-विज्ञात-अवबुद्धं परिणतमात्रम्-अवस्थानन्तरं येन स तथा, बाल्यावस्थामतिक्रम्य परिक्षातयौवनारम्भ इत्यर्थः -" ऐसी व्याख्या करने से तो विज्ञातपरिणतमात्र पद का कौमारावस्था व्यतीत हो जाने पर यौवनावस्था के प्रारम्भ को जानने वाला-" यह अर्थ निष्पन्न होगा।
तथा-विएणयपरिणयमित्त-ऐसा पाठ मानने पर और इस की-विज्ञ एव विज्ञकः, स चासो परिणतमात्रश्च बुद्धयादिपरिणामापन एव विज्ञकपरिणतमात्रः-ऐसी श्री अभयदेव सूरि कृत व्याख्या मान लेने पर अर्थ होगा-जो विज्ञ है अर्थात् विशेष जान रखने वाला है और जो बुद्धि श्रादि को परिणति को उपलब्ध कर रहा है । तात्पर्य यह है कि बाल्यकाल की बुद्धि आदि का परित्याग कर यौवन कालीन बुद्धि आदि को जो प्राप्त हो रहा है ।
अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में प्रस्तुत अध्ययन के प्रधान नायक की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहते हैं
मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं० पुरिमताले नगरे समोसढ़े,
(१) छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान्० पुरिमताले नगरे समवसतः । परिषद् निर्गता । राजा निर्गतः। धर्मः कथितः । परिषद् राजा च प्रतिगतः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी गौतमो यावत् राजमार्ग समवगाढ़ः । तत्र. बहून्
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