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श्री विपाक सूत्र -
[ तीसरा अध्याय
धूर्त तथा अन्य
लम्पट ग्रन्थिभेदक (गांठ कतरने वाले), सन्धिच्छेदक (मांथ लगाने वाले), जुआरी, बहुत से छिन्न-हाथ आदि जिनके काटे हुए हैं, भिन्न- नासिका आदि से रहित और बहिधकृत किये हुए मनुष्यों के लिए कुटक - आश्रयदाता था ।
वह पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत देश को अनेक ग्रामघात, नगरघात, गोहरण, बन्दी – ग्रहण, पथिक – जनों के धनादि के अपहरण तथा सेंध का खनन, अर्थात् पाड़ लगाकर चोरी करने से पीड़ित, धर्मच्युत, तर्जिन, ताडित-ताडनायुक्त एवं स्थान- राहत, धन और धान्य से रहित करता हुण, महाबल नरेश के राज- देय कर महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करके समय व्यतीत कर रहा था ।
उस विजय नामक चोरमेनापति की स्कन्दश्रो नाम की निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त परमसुन्दरी भार्या थी, तथा विजय चोरसेनापति का पुत्र स्कन्दश्री का श्रात्मज श्रभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त अर्थात् संगठित शरीर वाला, विज्ञात- विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि आदि की परिपक्वता से युक्त एवं युवावस्था को प्राप्त किये हुए था ।
टीका - प्रस्तुत सूत्र -पाठ में चोरसेनापति विजय के कृत्यों का दिग्दर्शन कराया गया है तथा साथ में उसकी समयज्ञता एवं दीघदर्शिता को भी सूचित कर दिया गया है ।
विजय ने सोचा कि जब तक मैं अनाथों की सहायता नहीं करूंगा तब तक मैं अपने कार्य में सफल नहीं हो पाऊंगा । एतदर्थ वह अनाथों का नाथ और निराश्रितों का आश्रय बना । उसने
ङ्गोपाङ्गों से रहित व्यक्तियों तथा बहिष्कृत दीन जनों की भरसक सहायता की, इस के अतिरिक्त स्वकार्य - सिद्धि के लिए उस ने चोरों, गांठकतरों, पर - स्त्री – लम्पटों और जुनारी तथा धूर्तों को आश्रय देने का यत्न किया । इस से उस का प्रभाव इतना बढ़ा कि वह प्रान्त की जनता से राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लगा तथा राजकीय प्रजा को पीड़ित, तर्जित और संत्रस्त करके उस पर अपनी धाक जमाने में सफल हुआ ।
विचार करने से ज्ञात होता है कि वह सामयिक नीति का पूर्ण जानकार था, संसार में लुटेरे और डाकू किस प्रकार अपने प्रभाव तथा श्राधिपत्य को स्थिर रख सकते हैं । इस विषय में वह विशेष निपुण था ।
"पारदारियाण - पारदारिकाणां ” – इत्यादि शब्दों की व्याख्या निम्नोत है
" - पारदारियाण - परस्त्रीलम्पटानां- - " अर्थात् जो व्यक्ति दूसरों की स्त्रियों से अपनी वासना तृप्त करता है, या यूं कहें कि पर स्त्रियों से मैथुन करने वाला व्यभिचारी पारदारिक कहलाता है ।
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- गंठिभेयगाण - ग्रन्थीनां भेदका:-ग्रन्थिभेदकाः तेषां - ११ अर्थात् जो लोग कैंची आदि से लोगों की ग्रन्थियें – गाठें कतरते हैं, उन्हें ग्रन्थिभेदक कहा जाता है। टीकाकार श्री अभयदेव सूरि द्वारा की गई - घुघुरादिना ये ग्रन्थीः छिन्दन्ति ते ग्रन्थिभेदकाः, इस व्याख्या में प्रयुक्त घुघु' र शब्द का कोषकार - सूर की आवाज़ - ऐसा अर्थ करते हैं । इस से “ – सूअर की आवाज जैसे शब्दों से लोगों को डरा कर उनकी गांठें कतरना - " यह अर्थ फलित होता है ।
" - सन्धिछेयाण - ये भित्तिसन्धीन् भिन्दन्ति ते सन्धिछेदकाः " अर्थात् सन्धि शब्द के अनेकानेक अर्थ होते हैं, परन्तु प्रस्तुत - प्रकरण में सन्धि का अर्थ है - दीवारों का जोड़ । उस जोड़ का भेदन करने वाले सन्धिछेदक कहलाते हैं ।
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