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श्री विपाक सूत्र
[ दूसरा अध्याय
यदि साथ में क्रिया-आचरण न हो । इसी भान्ति अकेली क्रिया-आचरण का भी कुछ मूल्य नहीं जब कि उसके साथ ज्ञान का सहयोग न हो । अतः ज्ञान -पूर्वक किया जाने वाला क्रियानुष्ठान-आचरण ही कार्य-साधक हो सकता है। इसी लिये दीर्घदर्शी महर्षियों ने अपनी २ परिभाषा में उक्त सिद्धान्त का-"ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः- इत्यादि वचनों द्वारा मुक्त कण्ठ से समर्थन किया है।
सारांश यह है कि पतित-पावन भगवान् महावीर स्वामी ने "-दुःखजनिका हिंसा से बचो और भगवती अहिंसा-दया का पालन करो, व्यभिचार के दूषण से अलग रहो और सदाचार के भूषण से अपने को अलंकृत करो. एवं ज्ञान-पूर्वक क्रियानुष्ठान का आचरण करते हुए अपने भीवष्य को उज्ज्वल, समुज्ज्वल एवं अत्युज्ज्वल बनाने का श्रेय प्राप्त करो -" यह उपदेश कथाओं के द्वारा संसार-वर्ती भव्य जीवों को दिया है, अतः शास्त्र-स्वाध्याय से प्राप्त शिक्षाएं जीवन में उतार कर श्रात्मा का श्रेय साधन करना ही मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये । यह सब कुछ गुरु मुख द्वारा शास्त्र के श्रवण और मनन से हो सकता है । इसी लिये शास्त्रकारों ने बार २ शास्त्र के श्रवण करने पर जोर दिया है।
॥ द्वितीय अभ्याय समाप्त ॥
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