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श्री विपाक सूत्र
| दूसरा अध्याय
जन्य महान शोक से व्याप्त हुई कुठाराहत - कुल्हाडे से कटी हुई चम्पकवृक्ष की लता- शाखा की भांति धड़ाम से पृथिवी तल पर गिर पड़ी ।
तदनन्तर वह सुभद्रा एक मुहूर्त के अनन्तर आश्वस्त हो तथा अनेक मित्र ज्ञाति यावत् सम्बन्धिजनों से घिरी हुई और रुदन, क्रन्दन तथा विलाप करती हुई विजयवित्र के लौकिक मृतक क्रियाकम को करती है । तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय पर लवणसमुद्र पर पति का गमन लक्ष्मी का विनाश, पोत- जहाज़ का जलमग्न होना तथा पतिदेव की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न हुई कालधर्म - मृत्यु को प्राप्त हो गई।
टीका - प्रत्येक मानव उन्नति चाहता है और उस के लिये वह यत्न भी करता है । फिर वह उन्नति चाहे किसी भी प्रकार क्यों न हो । एक जितेन्द्रिय साधु व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों के दमन एवं साधनामय जीवन व्यतीत करने में ही अपनी उन्नति मानता है। एक विद्यार्थी अपनी कक्षा में अधिक अंक - नम्बर लेकर पास होने में उन्नति समझता है । इसी प्रकार एक व्यापारी की उन्नति इसी में है कि उसे व्यापार- क्षेत्र में अधिकाधिक लाभ हो । सारांश यह है कि हर एक जीव इसी लक्ष्य को सन्मुख रखकर प्रयास कर रहा है। इसी विचार से प्रेरित हुआ विजयमित्र सार्थवाह आर्थिक उन्नति की इच्छा से अवसर देख कर विदेश जाने को तैयार हुआ, तदर्थ उसने अनेकविध गणिम, धरिम, मेय, और परिच्छेद्य नाम की पण्य - बेचने योग्य वस्तुओं का संग्रह किया ।
गिणती में बेची जाने वाली वस्तु गणिम कहलाती है, अर्थात् जिस वस्तु का भाव संख्या पर नियत हो जैसे कि नारियल आदि पदार्थ, उसकी गणिम संज्ञा है । जो वस्तु तुला - तराज़ू से तोल कर बेची जाय, जैसे घृत, शर्करा आदि पदार्थ, उसे धरिम कहते हैं । नाप कर बेचे जाने वाले पदार्थ कपड़ा फीता आदि मे कहलाते हैं तथा जिन वस्तुओं का क्रय-विक्रय परीक्षाधीन हो उन्हें परिच्छेद्य कहते हैं । हीरा पन्ना आदि रत्नों का परिच्छेद्य वस्तुओं में ग्रहण होता है ।
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विजय मित्र सार्थवाह ने इन चतुबिंध पण्य-वस्तुओं को एक जहाज़ में भरा और उसे ले कर वह लवणसमुद्र में विदेश गमनार्थ चल पड़ा । चलते २ रास्ते में जहाज़ उलट गया अर्थात् किसी पहाड़ी आदि से टकराकर अथवा तूफान आदि किसी भी कारण से छिन्न भिन्न हो गया, उस में भरी हुई तमाम चीजें जलमग्न हो गई और विजयमित्र सार्थवाह का भी वहीं प्राणान्त हो गया ।
कर्म की बड़ी विचित्र है । मानव प्राणी सोचता तो कुछ और है मगर होता है कुछ और । विजयमित्र ने अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने की इच्छा से समुद्रयात्रा द्वारा विदेशगमन किया, वह समुद्र में सब कुछ विसर्जित कर देने के अतिरिक्त अपने जीवन को भी खो बैठा। इसी को दूसरे शब्दों में भावी -भाव कहते हैं, जो कि अमिट है ।
विजय मित्र सार्थवाह की इस दशा का समाचार जब वहां के ईश्वर, तलवर और माम्बिक आदि लोगों को मिला तब वे मन में बड़े प्रसन्न हुए, उन के लिये तो यह मृत्यु समाचार नहीं
(१) यह प्रकृति का नियम है कि जहां फूल होते हैं वहां काटे भी होते हैं, इसी भांति जहां अच्छे विचारों के लोग होते हैं वहां गर्हित विचार रखने वाले लोगों की भी कमी नहीं होती । यही कारण है कि जब स्वार्थी लोगों ने विजयमित्र का परलोक-गमन तथा उस की सम्पत्ति का समुद्र में जलमग्न हो जाना सुना तो परदुःख से दुःखित होने के कर्तव्य से च्युत होते हुए उन लोगों ने अपना स्वार्थ साधना आरम्भ किया और जिस के जो हाथ लगा वह वही ले कर चल दिया। धिक्कार है ऐसी जघन्यतम लोभवृत्ति को ।
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