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श्री विपाक सूत्र
[दूसरा अध्याय
" – विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः - अर्थात् विवेकहीन व्यक्तियों के पतित हो जाने के सैंकड़ों मार्ग हैं, इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार दुर्दैववशात् उज्झितक कुमार का किसी समय वाणिजग्राम नगर की सुप्रसिद्ध वेश्या कामध्वजा से स्नेहसम्बन्ध स्थापित हो गया / उस के कारण वह मनुष्य सम्बन्धी विषय-भोगों का पर्याप्त रूप से उपभोग करता हुआ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा ।
"श्रणाप" पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है
" यो बलात् हस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमानं निवारयति सोऽपघट्टकस्तदभावादनप घट्टकः” अर्थात् जो किसी को बलपूर्वक हाथ आदि से पकड़ कर किसी भी कार्य विशेष से रोक देता है वह अपघट्ट निवारक कहलाता है और इसके विपरीत जिस का कोई अपघट्टक - रोकने वाला न हो उसे अपघट्टक कहते है । इस प्रकार का व्यक्ति ही कुसगदोष से स्वच्छन्दमति और स्वेच्छाचारी हो जाता है ।
" वेसदारप्पसंगी " गामी और परदार - गामी तथा
इस पद के वृत्तिकार ने दो' अर्थ किये हैं, जैसे कि - (१) वेश्या२ - वेश्या रूप स्त्रियां के साथ अनुचित सम्बन्ध रखने वाला । प्रस्तुत सूत्र में वेश्या और दारा ये दो शब्द निर्दिष्ट हुए हैं । इन में वेश्या का अर्थ है पराय - स्त्री अर्थात खरीदी जाने वाली बाजारू औरत । और दारा वह है जिसका विधि के अनुसार पाणिग्रहण किया गया हो । दारा शब्द की शास्त्रीय व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है
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" दारयन्ति पतिसम्बन्धेन पितृभ्रात्रादिस्नेहं भिन्दन्तीति दाराः " अर्थात् पति के साथ सम्बन्ध जोड़ कर जो पिता भ्राता आदि स्नेह का दारण- विच्छेद करती है वह दारा कही
।
जाती है । दूसरे की स्त्री को पर- स्त्री कहते हैं | साहित्य — ग्रन्थों में स्वकीया, परकीया और सामान्या ये तीन भेद नायिका - स्त्री के किये गए इन में स्वकीया स्वस्त्री का नाम है परस्त्री को परकीया और वेश्या को सामान्या कहा है । वेश्या न तो स्वस्त्री है और न परस्त्री किन्तु सर्व-भोग्य होने से वह सामान्या कहलाती है । अतः वेश्या और परस्त्री दोनों ही भिन्न २ पदार्थ हैं । वेश्या का कोई एक स्वामी-मालक या पति नहीं होता जब कि पर- स्त्री एक नियत स्वामी वाली होती है। इसी विभिन्नता को लेकर सूत्रकार ने " वेसदारम्पसंगी " इसमें दोनों का पृथक् रूप से निर्देश किया है जो कि उचित ही हैं ।
" भोगभोगाई" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "भोजनं भोगः - परिभोगः भुज्यन्त इति भोगा शब्दादयो, भोगार्हा भोगा भोग भोगाः - मनोशाः शब्दादय इत्यर्थः - इस प्रकार है, अर्थात् - भोग शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है, जैसे कि -
(१) परिभोग करना (२) जिन शब्दादि पदार्थों का परिभोग किया आदि भोग कहलाते हैं । प्रस्तुत प्रकरण में भोगभोग शब्द प्रयुक्त हुआ है, के भोग शब्द का अर्थ है - भोगाई - भोगयोग्य और दूसरे भोग शब्द का “ – शब्द अर्थ है । तात्पर्य यह है कि भोगभोग शब्द मनोज्ञ-सुन्दर शब्दादि का परिचायक है । सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में मित्र महापाल की महाराणी के योनि - शूल का वर्णन करते हुए उज्झितक कुमार की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं -
(१) “ – वेसदारम्पसंगी " त्ति वेश्याप्रसंगी कलत्रप्रसंगी चेत्यर्थः, अथवा वेश्यारूपा ये दारास्त. प्रसंगीति वृत्तिकारः ।
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जाए वे शब्द, रूप जिस में से प्रथम रूप आदि - " यह