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१७४ ]
श्रो विपाक सूत्र
[दूसरा अध्याय
पदार्थ-तरणं तदनन्तर । अन्नया कयाइ--- कसी अन्य समय । से - वह । उझियएउज्झितक । दारए -बालक । कामझपाप --कामध्वजा । गणिवार-गणिका के । अंतरंअन्तर -- जित समय राजा वहां आया हुआ नहीं था उस समय को । लभात - प्राप्त कर लेता है।
मझयाए-कामध्वजा । गणियाए-गणिका के । गिह-गृह में। रहस्सियगं-. गुप्त रूप से । अणुप्पविसइ-प्रवेश करता है । २ त्ता-प्रवेश कर के । कामझयाए गणियाए - कामध्वजा गणिका के । सद्धिं-साथ । उसलाई-उदार-प्रधान । माणुस्सगाई-मनुष्य-सम्बन्धी । भागभोगाई-भोगपरिभोगों का । भुजमाणे - उपभोग करता हुा । विहरति-विहरण करने लगा-सानन्द समय बिताने लगा।
मूलाथे--तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किमो अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्त कर गुप्त रूप से उसके घर में प्रवेश कर के कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य-सम्बन्धी उदार विषय-भोगों का उपभाग कता हा सानान समय व्यतीत करने लगा।
टीका-साहस के बल से असाध्य कार्य भी साध्य हो जाता है, दुष्कर भी सुकर बन जाता है । साहसी पुरुष कठिनाइयों में भी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही चला जाता है, वह सुख अथवा दःख, जीवन अथवा मरण की कुछ भी चिन्ता न करता हश्रा अपने भगीरथ प्रयत्न से एक न एक दिन अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेता है । इसी दृष्टि से कामध्वजा को पुनः प्राप्त करने की धुन में लगा हा उज्झितक कमार भी अपने कार्य में सफल हश्रा। उसे कामध्वजा तक पहुंचने का अवसर मिल गया । उसकी मुआई हुई अाशालता फिर से पल्लवित हो गई।
वह कामध्वजा के साथ पूर्व की भांति विषय - भोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द जीवन बिताने लगा । अन्तर केवल इतना था कि प्रथम वह प्रकट रूप से आता जाता और निवास करता था, और अब उसका श्राना जाना तथा निवास गुप्तरूप से था । इसका कारण कामध्वजा का मित्रनरेश के अन्तःपुर में निवास था । उसी से परवश हुई कामध्वजा उज्झितक कुमार को प्रकट रूप से अपने यहां रखने में असमर्थ थी । परन्तु दोनों के हृदयगत अनुराग में कोई अन्तर नहीं था । तात्पर्य यह है कि वे दोनों एक दूसरे पर अनुरक्त थे । एक दूसरे को चाहते थे । अन्यथा यदि कामध्वजा का अनुराग न होता तो उज्झितक कुमार का लाख यत्न करने पर भी वहां प्रवेश करना सम्भव नहीं हो सकता था । अस्तु, इसके पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं
मूल-' इमं च णं मिचे राया बहाते जाव पायच्छिते सवालंकारविभूसिते मणुस्सवग्गुरापारक्खित्त जेणेव कामज्झयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छति २त्ता तत्थ णं उभि
(१) छाया-इतश्च मित्रो राजा स्नातो यावत् प्रायश्चित्त: सर्वालंकारविभूषितः मनुष्यवागरापरिक्षिप्तो यत्रैव कामव्वजाया गणिकाया गृहं तत्रैवो पागच्छति । उपागत्य तत्रोज्झितकं दारकं कामध्वजया गणिकया सामुदारान् भोगभोगान् यावत् विहरमाणं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरुप्त: ४ त्रिवलिक. भृकुटिं ललाटे संहृत्य उज्झितकं दारकं पुरुषैहियति ग्राहयित्वा यष्टिमुष्टिजानुकूपरप्रहारसंभममथितगात्र करोति कृत्वा अवकोटकबन्धनं करोति कृत्वा एतेन विधानेन वध्यमाज्ञापयति । एवं खलु गौतम ! उज्झितको दारकः पुरा पुराणाणां कर्मणां यावत् प्रत्यनुभवन् विहरति ।
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