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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
इस वाक्य में उल्लेख किये गये "हव्व" पद का आचार्य अभयदेवसूरि शीघ्र अर्थ करते हैं. जैसे कि "हव्वं ति शीघ्रम्" । परन्तु उपासक - दशांग को व्याख्या में श्रद्धय श्री घासी लाल जी महाराज ने उस का “अकस्मात्” अर्थ किया है और लिखा है कि मगध देश में आज भी " हव्व हव्य" शब्द अकस्मात् ( अचानक ) अर्थ में प्रसिद्ध है । हव्यम् - अकस्मात् हव्यमित्ययं शब्दोऽद्यापि मागधे अकस्मादथं प्रसिद्धः । (पृष्ठ ११४) ।
स्वकीय गुप्त वृत्तान्त को श्री गोतमस्वामी द्वारा उद्घाटित हो जाने से चकित हुई मृगादेवी का गोतम स्वामो से किसी अतिशय ज्ञानी वा तपस्वी सम्बन्धो प्रश्न भो रहस्य पूर्ण है । नितान्त गुप्त अथवा अन्तःकरण में रही हुई बात को यथार्थ रूप में प्रकट करना, विशिष्ट ज्ञान पर ही निर्भर करता है, विशिष्ट ज्ञान के धारक मुनिजनां के बिना - जिन की आत्मज्योति विशिष्ट प्रकार के प्रावरणों से अनाछन्न होकर पूर्णरूपेण विकास को प्राप्त कर चुको हो - दूसरा कोई व्यक्ति अन्तःकरण में छिपी हुई बात को प्रकट नहीं कर सकता ! अत एव मृगादेवी ने भगवान् गौतम से जो कुछ पूछा है उसमें यही भाव छिपा हुआ है।
मृगादेवी के उक्त प्रश्न का गौतमस्वामी ने जो उत्तर दिया व सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं।
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मूल - ' तते गं भगवं गोतमे मियं देवि एवं वयासी - एवं खलु देवाप्पिए । मम धम्मायरिए समणे भगवं जाव, ततो णं श्रहं जाणामि । जावं च गं मियादेवी भगवया गोतमेणं सद्धि एयम' संलवति तावं च गं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया
(१) छाया - ततो भगवान् गौतमो मृगां देवीमेवमवदत् - एवं खलु देवानुप्रिये ! मम धर्माचार्यः श्रमणो भगवान् यावत्, ततोऽहं जानामि । यावच्च मृगादेवी भगवता गौतमेन सार्द्ध मेतमर्थ संलपति तावच्च मृगापुत्रस्य दारकस्य भक्तवेला जाता चाप्यभवत् । ततः सा मृगादेवी भगवन्तं गौतममेवमवादीत् - यूयं भदन्त ! इहैव तिष्ठत, यावदहं युष्मभ्यं मृगापुत्रं दारकमुपदर्शयामि, इति कृत्वा यत्रैव भक्तपानगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वस्त्रपरिवर्तं करोति, कृत्वा काष्ठशकटिकां गृह्णाति गृहीत्वा विपुलेनाशनपानखादिमस्वादिना भरति भृत्वा तां काष्ठशकटिकामनुकर्षन्ती २ यत्रैव भगवान् गौतमस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य भगवन्तं गौतममेवमवदत् एत यूयं भदन्त ! मामनुगच्छत, यावदहं युष्मभ्यं मृगापुत्रं दारकमुपदर्शयामि । ततः स गौतमो मृगादेवीं पृष्ठतः समनुगच्छति । ततः सा मृगादेवी तां काष्ठशकटिकामनुकर्षन्ती २ यत्रैव भूमिगृहं तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चतुष्पुटेन वस्त्रेण मुखं बध्नाति भगवन्तं गौतममेवमवादीत् - यूयमपि च भदन्त ! मुखपोतिकया मुखं वध्नीत । ततो भगवान् गौतमो मृगादेव्या एवमुक्तः सन् मुखपोतिकया मुखं बध्नाति । ततः सा मृगादेवी परांमुखी भूमिगृहस्य द्वारं विघाटयति । ततो गन्धो निर्गच्छति । स यथा नामाहिमृतकस्य वा यावत् ततोऽपि चानिष्टतरश्चैव यावद् गन्धः प्रज्ञप्तः ।
(२) प्रश्न- घर आदि में अकेली स्त्री के साथ खड़ा होना और उस के साथ संलाप करना शास्त्रों में निषिध्द है । प्रस्तुत कथासंदर्भ में राजकुमार मृगापुत्र को देखने के निमित्त गये भगवान गौतम स्वामी का महारानी मृगादेवी से वार्तालाप करने का वृत्तान्त स्पष्ट ही है । क्या यह शास्त्रीय मर्यादा की उपेक्षा नहीं ?
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+ समरेषु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे । एगो एगत्थिए सद्धिं नेव चिट्ठे न संलवे ||२६||
( उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १ )