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अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
सागरोपम. यह पद एक संख्याविशेष का नाम है । अंकों द्वारा इसे प्रकट नहीं किया जा सकता, अत: उसे समझाने का उपाय उपमा है उपमा द्वारा ही उस की कल्पना की जा सकती है. इसी कारण उसे उपपासंख्या कहते हैं और इसीलिये सागर शब्द के बदले सागरोपम शब्द का व्यवहार किया जाता है। सगरोपम का स्वरूप इस प्रकार है ---
चार कोस लम्बा और चार कोस चौड़ा तथा चार कोस गहरा एक कूत्रां हो, कुरु-क्षेत्र के युगलिया के ७ दिन के जन्मे बालक के बाल लिये जाएं । युगलिया के बाल अपने बालों से ४०९६ गुना सूक्ष्म होते हैं उन बालों के बारीक से बारीक टुकड़े काजल की तरह कये जायें, चर्मचक्षु से दिखाई देने बाले टुकड़ों से असंख्य गुने छोटे टुकड़े हों अथवा सूर्य की किरणों में जो रज दिखाई देती हैं उस से असंख्य गने छोटे हों, ऐसे टुकड़े करके उस कूए में ठसाठस भर दिये जावें । सौ सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक एक टुकड़ा निकाला जाय, इस प्रकार निकालते . जब वह कप खाली हो जावे तब एक पल्योपम होता है । ऐसे दस कोड़ाकोड़ी कूप जब खाली हो जाएं तब एक सागरोपम होता है । एक कोड को एक क्रोड़ की संख्या से गुना करने पर जो गुनन फल अाता है वह कोड़ाकोड़ी कहलाता हैं ।।
उत्कृष्ट सागरोपम-स्थिति वाले का अर्थ है-अधिक से अधिक एक सागर पम काल तक नरक में रहने वाला । इसका यह अर्थ नहीं कि प्रथम नरक भूमी के प्रत्येक नारकी की सागरोपम की ही स्थिति होती है क्योंकि यहां पर जो नरक भूमियों की एक से क्रमशः ३३ सागरोपम तक की स्थिति बतलाई है, वह उत्कृष्ट अधिक से अधिक) बतलाई है, जघन्य तो इससे बहुत कम होती है । जैसे पहले नरक की उत्कृष्टस्थिति एक सागरोपम की और जघन्य दस हजार वर्ष की है, तात्पर्य यह है कि प्रथम नरक-भूमी में गया हुआ जीव वहां अधिक से अधिक एक सगरोपम तक रह सकता है और कम से कम १० हाजार वर्ष तक रह सकता है। - यहां पर मृगापुत्र के पहली से सातवीं नरक भूमी में जाने तथा उनसे निकल कर अमुक २ योनि में उत्पन्न होने का जो क्रम बद्ध उल्लेख है उसका सैद्धान्तिक निष्कर्ष इस प्रकार समझना चाहिये--
. असंज्ञी प्राणी मर कर पहली भूमी-नरक में उत्पन्न हो सकते हैं आगे नहीं । भुजपरिसर्प, पहली दो भूमी तक, पक्षी तीन भूमी तक, सिंह चार भूमी तक, उरग पांचवीं भूमी तक, स्त्रो छठी भूमी तक ओर मत्स्य तथा मनुष्य मर कर सातवीं नरक भूमी तक जा सकते हैं ।
तियेंच और मनुष्य हो नरक में उत्पन्न हो सकता है, देव और नारक नहीं। इसका कारण । यह है कि उन में वैसे अध्यवसाय का सदभाव नहीं होता। तथा नारकी मर कर फिर तुरन्त न तो नरक गति में ही पैदा होता है और न देवगतियों में, किन्तु वे मर कर सिर्फ तिर्यंच और मनुष्य गति में ही उत्पन्न हो सकते हैं। (१) दसवर्ष-सहस्राणि प्रथमायां । तत्त्वार्थसूत्र, ४-४४ । (२) असण्णी खलु पढ़मं दोच्चं पि सिरीसवा, तइयं पक्खी । सीहा जंति चउत्थि, उरगा पुण पंचमि पुढविं ॥१॥ छष्टुिं च इत्थियात्रो. मच्छा मणुत्रा य सत्तमि पुढविं। एसो परमो वारो, बोधव्वो नरगपुढ़वीणं ॥२॥
[प्रज्ञापना सूत्र, छठा पद] (३) नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो अणंतरं उव्यट्टित्ता नेरइएसु उववज्जेज्जा ' गोयमा ! णो इण? सम? । एवं निरंतरं जाव चउरिदिएसु पुच्छा, गोमया ! नो इण? सम?। नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उध्वट्टि त्ता पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिएसु उववज्जेज्जा १ अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए नो उववज्जेज्जा......... ....... । नेरइए णं भंते ! नेरइहिंतो अणंतरं उव्वत्तिा मणुस्सेसु उववज्जेज्जा १ गोयमा ! अत्थेगतिए उववज्जेज्जा, अत्थेगतिए, णो उववज्जेज्जा ।
[प्रज्ञापना सूत्र २० । २५०]
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