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श्री विपाक सूत्र
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है ? इस की स्पष्ट सूचना मिलती है ।
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१" अांतरं चयं चइता इस के दो अर्थ हैं --- (१) त्रयं - शरीर को, चइत्ता छोड़ कर, अर्थात् तदनन्तर शरीर को छोड़ कर, और दूसरा । (२) चयं - च्यवन, चइता - करके अर्थात् च्यवकर अणंतरं - सीधा - व्यवधानरहित | उत्पन्न होता है ] ऐसा अर्थ है । महाविदेह - पूर्व महाविदेह, पश्चिममहाविदेह, देवकुरु और उत्तर – कुरु इन चार क्षेत्रों की महाविदेह संज्ञा है । इन में पूर्व के दो कर्मभूमी और उत्तर के दो क्षेत्र कर्मभूमी हैं । पूर्व तथा पश्चिम महाविदेह में चौथे आरे जैसा समय रहता है और देव तथा उत्तर कुरु में पहले आरे जैसा समय रहता है, और कृषि वाणिज्य तथा तप, संयम आदि धार्मिक क्रियाओं का आचरण जहां पर होता हो उसे कर्म-भूमि कहते हैं – कृषिवाणिज्य – तपः संयमानुष्ठानादिकर्म - प्रधाना भूमयः कर्मभूमयः । जहां कृषि आदि व्यवहार न हों उसे कर्मभूमी कहते हैं । 66 अड्ढाईं ” इस पद से दित्ताई, वित्ताई, विच्छिवि उलभव ण सयणा सजाए - वाहरणाईं. बहुधणजाग्ररूवरययाई, आओगपागप उत्ताइ, विच्छड्डियपडरभत्त पागाईं, बहु- - दासीदासगो महिसागवेल गप्प भूयाई, बहुजणस्स अपरिभूया इं को अभिमत है ।
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इस पाठ का ग्रहण करना ही सूत्रकार
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सूत्रकार महानुभाव ने “ जहा दृढपतिसैव वक्तव्यता " इत्यादि उल्लेख में दृढ़प्रतिज्ञ नाम और श्राढ्यकुल में उत्पन्न हुए मृगापुत्र के जीव की उसी के समान बतलाया है । इस से दृढ़प्रतिज्ञ कौन था ? कहां था ? जन्म के बाद उसने क्या किया ? तथा अन्त में उस का क्या बना । इत्यादि बातों की जिज्ञासा का अपने आप ही पाठकों के मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है । इस लिये दृढ़प्रतिज्ञ के जीवन पर भी विहंगम दृष्टि-पात कर लेना उचित प्रतीत होता है ।
यथा दृढ़प्रतिज्ञ : " और " सा चैव वत्तव्वया - की किसी व्यक्ति- विशेष का स्मरण किया है अथ से इति पर्यन्त सारी जीवन-चर्या को
[प्रथम अध्याय
दृढ़ प्रतिज्ञ का जीव पूर्वभव में बड़ परिव्राजक सन्यासी के नाम से विख्यात था। उस को जीवनचर्या का उल्लेख औपपातिक सूत्र में किया गया है अम्बड़ परिव्राजक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का अनन्य उपासक था । वह शास्त्रों का पारगामी और विशिष्ट ग्रात्मविभूतियों से युक्त और देशविरति चारित्रसम्पन्न था । इस के अतिरिक्त वह एक सम्प्रदाय का श्राचार्य अथच अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में और शास्त्रार्थ करने में बड़ा सिद्धहस्त था । उस की विशिष्ट लब्धि का इससे पता चलता है कि वह सौ घरों में निवास किया करता था । उसी अम्बड़ परिव्राजक का जीव आगामी भव में दृढ़प्रतिज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ! माता के गर्भ में आते ही माता पिता की धर्म में अधिक दृढ़ता होने से उन्हों ने ऐसा गुण निष्पन्न नाम रक्खा । दृढ़ प्रतिज्ञ का जन्म एक सम्मृद्धिशाली प्रतिष्ठित होने पर विद्याध्ययनार्थ उसे एक योग्य कलाचार्य अध्यापक को सौंप दिया गया
बालक का " दृढ़प्रतिज्ञ
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कुल में हुआ, आठ वर्ष का प्रतिभाशाली दृढ़प्रतिज्ञ के
वा कृत्वा, [ टीकाकारः ]
( १ ) " - अनंतरं चयं चइता - "त्ति - अनन्तर शरीरं त्यक्त्वा, च्यवनं ( २ ) " - ते गोयगा ! एवं बुच्चर - अम्मड़े परिव्वायर कंपिल्लपुरे नपरे घरसए जाव वसहिं उवेइ – ”
(३) “ – इमं एयारूवं गोणं गुणणिष्फरणं नामघेज्जं कार्हिति - जम्हा णं गन्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढ़पइरणा तं होउ णं श्रहं दारए दढ़पइरणे नामे, मापियरो णामधेज्जं करेहिंति दढ़पइण्णेति – ” ।
म्हं इमंसि दारगंसि तए गं तस्स दारगस्स