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दूसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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के चौरास्तों पर रखना झूठी पतलों की भोजन के पश्चात् कील को खोलना, धान की मुट्ठी आदि उतार कर किसी के सिरहाने रखना आदि २ कामों की विधियां इस कला के द्वारा लोगों को बताई जाती हैं। कलाकारों का कहना है कि इस कला के द्वारा कई प्रकार की दैहिक, दैविक और भौतिक बाधायें आसानी के साथ निर्मूल की जा सकती हैं ।
(६७) रूप-पाक - विधिकला - अपने रूप को निखारने लिये ऋतु, काल, देश की प्रकृति और अपनी प्रकृति का मेल मिला कर कौन २ पाकों का सेवन करते रहना चाहिए १ ये पाक कैसे और कौन २ पदार्थों के कितने २ परिमाण से बनते हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला से लोगों को कराया जाता है । (६८) सुवर्ण - पाक-विधिकला - इस कला के द्वारा पुरुष अनेक विधियों से नानाविध सुवर्ण के पाकों का निर्माण सीखा करते थे। इस में प्रथम विधिपूर्वक सोने को शोधना. फिर उस के नियमित परिमाण के साथ अन्यान्य आवश्यक पदार्थों तथा जड़ी बूटियों को मिलाकर पाक तैयार करना, तदनन्तर उस का विधि के अनुसार सेवन करना, इत्यादि बातें भी इस कला में बताई जाती हैं ।
(६९) बन्धनकला - किसी पर मन्त्र और दृष्टि आदि के बल से ऐसा प्रभाव डालना कि जिस से वह औरों की निगाह में बद्ध प्रतीत न हो सके परन्तु वह स्वयं को बद्ध समझता रहे । यही इस कला का उद्देश्य है ।
(७०) मारणकला - केवल मन्त्रों की सिद्धि और दृष्टिवल से बिना किसी भी प्रकार का किसी पुरुषविशेष से युद्ध किए, यहां तक कि बिना उसे देखे भाले केवल उस का नाम और स्थान मालूम कर एवं बिना किसी भी प्रकार के शस्त्रों का उस पर प्रयोग किए उस के सिर को धढ़ से अलग कर देना या अन्य किसी भी प्रकार से उसे मार गिराना इस कला क. काम है ।
(७१) स्तम्भन - कला - किसी व्यक्ति विशेष से अपने पराए किसी वैर का बदला लेने के लिये उसे किसी नियत काल तक के लिये स्तम्भित कर रखना इस कला से लोग जान पाते हैं ।
( ७२ ) संजीवन - कला - किसी मृतप्राय या मृतक दिखने वाले व्यक्ति को जो अकाल में ही किसी कारण- विशेष से मृत्यु को प्राप्त होता दिखाई दे रहा हो, मन्त्र तन्त्र, यन्त्र आदि विधियों के बल या किसी भी प्रकार की संजीवनी जड़ी को उस के मृतप्राय शरीर से स्पर्श करा कर उसे पुनर्जीवित कर देना इस कला द्वारा लोग जान पाते हैं ।
शास्त्रों में ७२ कलायें पुरुषों की मानी जाती हैं, किन्तु प्रकृत सूत्र में उन कलाओं का एक नारी में सूचित करने का अर्थ है कि उस नारी के महान् पांडित्य को अभिव्यक्त करना, और टीकाकार का कहना है कि प्राय: पुरुष ही इन कलाओं का अभ्यास करते हैं, स्त्रियां तो प्रायः इन का ज्ञान मात्र रख सकती हैं । लेखाद्याः २ शकुनरुतपर्यन्ता गणित - प्रधाना कला प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः,
(१) यह कला वर्णन स्वर्गीय, जैनदिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, पण्डित श्री चौथमल जी महाराज द्वारा विरचित "भगवान् महावीर का आदर्श जीवन" नामक ग्रन्थ से उद्धृत किया गया है । शाब्दिक रचना में कुछ आवश्यक अन्तर रखा गया है और आवश्यक एवं प्रकरणानुसारी भाव ही संकलित किये गए हैं। कहीं वर्णन में स्वतन्त्रता से भी काम लिया गया है ।
(२) इस वर्णन से प्रतीत होता है कि टीकाकार श्री अभयदेवसूरि के मत में ७२ कलाओं में से प्रथम की लेखन - कला है और अन्तिम कला का नाम शकुनरुतकला है, परन्तु हमने जिन कलाओं का वर्णन ऊपर किया है, उन में पहली तो वृत्तिकार की मान्यतानुसार है परन्तु अन्तिम कला में भिन्नता है । इसका कारण यह है कि कलाओं का वर्णन प्रत्येक ग्रन्थ में प्रायः भिन्न भिन्न रूप से पाया जाता है। ऐसा क्यों है ? यह विद्वानों के लिये विचारणीय है
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