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११८)
श्री विपाक सूत्र
[ दूसरा अध्याय
थे और रूप वर्ण लावण्य प्राकृति की सुन्दरता ) हास तथा विलास (स्त्रियों की विशेष चेष्टा ) बहुत मनोहर था।
-ऊसियधया-उच्छितभ्वजा-” अर्थात् कामध्वजा गणिका के विशाल भवन पर ध्वजा (छोटा ध्वज) फहराया करती थी। ध्वज किसी भी राष्ट्र की पुण्यमयी संस्कृति का एवं राष्ट्र के तथागत पुरुषों के अमर इतिहास का पावन प्रतीक हुया करता है । ध्वज को किसी भी स्थान पर लगाने का अथ है -- अपनी संस्कृति एवं अपने अतीत रासी ों के प्रति अपना सम्मान प्रकट करना तथा अपने राष्ट्र के गौरवानुभव का प्रदर्शन करना । ध्वज का सम्मान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी का सम्मान होता है और उस का अपमान राष्ट्र के प्रत्येक निवासी के अपमान का संसूचक बनता है इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए . राष्ट्रिय भावना के धनी लोग ध्वज को अपने मकानों पर लहरा कर अपने राष्ट्र के अतीत गौरव का प्रदर्शन करते हैं। सारांश यह है कि काम वजा गणिका का मानस राष्ट्रिय-भावना से समलंकृत था, वह गणिका होते हुए भी अपने राष्ट्र की संस्कृति एवं उसके इतिहास के प्रति महान् सम्मान लिये हुए थी, और साथ में वह उस का प्रदर्शन भी कर रही थी। .. "-सहस्सलंभा-सहस्त्रलाभा-” अर्थात् वह कामध्वजा गणका अपनी नृत्य, गीत आदि किसी भी कला के प्रदर्शन में हजार मुद्रा ग्रहण किया करती थी, अथवा सहवास के इच्छुक को एक सहन मुद्रा भेंट करनी होती थी अर्थात् उस के शरीर आदि का आतिथ्य उसे ही प्राप्त होता था जो हजार मुद्रा अर्पण करे।
"--विदिएण-छत्त-चामरवालवियाणिया-वितीर्ण छत्रचामरबालव्यजनिका-" अर्थात् राजा की ओर से दिया गया है छत्र, चामर-चवर और बालव्यजनिका-चवरी या छोटा पंखा जिस को ऐसी, अर्थात् कामध्वजा गणिका को कलात्रों से प्रसन्न हो कर राजा ने उसे पारितोषिक के रूप में ये सन्मान सूचक छत्र, चामरादि दिये हुए थे । इन विशेषणों से कामवजा के विषय में इतना ही कह देना पर्याप्त है कि वह कोई साधारण बाजार में बैठने वाली वेश्या नहीं थी अपितु एक प्रसद्ध कलाकार तथा राजमान्य असाधारण गणिका थी।
-- करणीरहप्पयाया-कर्णीरथप्रयाता-" अर्थात् वह गणिका कीरथ के द्वारा आती जाती थी, अर्थात् उस के गमनागमन के लिये कणीरथ प्रधानरथ नियुक्त था । कर्णारथ यह उस समय एक प्रकार का प्रधान रथ माना जाता था. जो कि प्राय: समृद्धि--शाली व्यक्तियों के पास होता था ।
"आहेवच्चं जाव विहरति" इस पाठ में उल्लिखित "जाव-यावत्" पद से सूत्रकार को क्या विवक्षित है १ उस का सविवर्ण निर्देश वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है -
"-- आहेवच्च-" त्ति प्राधिपत्यम् अधिपतिकम, इह यावत्करणादिदं दृशम् " - पोरेवच्चं-" परोवर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः । “ -भट्टितं-भतृत्वं पोषकत्वम् ...... सामित्तं.--" स्वस्वामि -- सम्बन्धमात्रम्, ' -महत्तरगत्तं -"महत्तरगत्वं शेषवेश्या-जनापेक्षा महत्तमताम् "-आणाईसरसेणावच्चं-" अाशेश्वरः
आज्ञा-प्रधानो यः सेनापतिः, सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म वा आशेश्वरसेनापत्यम्, "-कारेमाणा -" कारयन्ती परैः " -पालेमाणा-” पालयन्ती स्वयमिति । अर्थात् वह गणिका हज़ारों गणिकाओं का आधिपत्य, और पुरोवर्तित्व करती थो । तात्पर्य यह है कि उन सब में वह प्रधान तथा अग्रेसर थी उन की पोषिका -पालन पोषण करने वाली थी । उन के साथ उस का सेविका और स्वामिनी जैसा सम्बन्ध था। सारांश यह है कि सहस्रों वेश्यायें उसकी आज्ञा में रहती थीं और वह उनकी पूरी २
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