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दूसरा अध्याय
हिन्दो भाषा टोका सहित ।
[१२३
तुन्भेहिं अब्भणुराणाते समाणे खमणपारणगंसि वाणियग्गामे णगरे उच्चणीयमभिमकुलाई घरसमुदाणस्स भिक्वायरियाए अडित्तर । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह । तर रां भगवं गोयमे समणेणं ३ अब्भणुराणाते समाणे समणस्स ३ अंतियातो पडिनिक्खमति, अतु. रियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाते दिट्ठीए पुरयो रियं सोहेमाणे "-इस पाठ का स्मरण करना ही सत्रकार को अभिप्रेत है। इस समग्रपाठ का भावार्थ इस प्रकार है
तपोमय जीवन व्यतीत करने वाले भगवान् गौतम स्वामी निरन्तर षष्ठतप-बेले २ पारना, आत्म --शुद्धि में प्रवृत्त होते हए पारणे के दिन प्रथम पहर में स्वाध्याय करते, दुसरे में ध्यानारूढ़ होते, तीसरे पहर में कायिक और मानसिक चापल्य से रहित होकर मुखवस्त्रिका की तथा भाजन एवं वस्त्रों की प्रतिलेखना करते हैं । तदनन्तर पात्रों को झोली में रख कर और झोली को ग्रहण कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की मेवा में उपस्थित होकर वन्दना नमस्कार करने के पश्चात् निवेदन करते हैं कि आप की आज्ञा हो तो मैं वेले के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ वाणिजग्राम में जाना चाहता हूं १ प्रभु के "-जैसा तुमको सुख हो करो परन्तु विलम्ब मत करो -" ऐसा कहने पर वे-गौतम स्वामी भगवान् के पास से चल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए वाणिजग्राम में पहुंच जाते हैं ; वहां साधु वृत्ति के अनुसार धनी निर्धन आदि सभी घरों में भ्रमण करते हुए राजमार्ग में पधार जाते हैं ।
वहां पहुंचने पर गौतम स्वामी ने जो कुछ देखा अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं. मूल-तत्थ णं वहवे हत्थी पासति, सन्नवद्भवम्मियगुड़िते, उप्पीलियकच्छे, उद्दामियघंटे, णाणामणिरयणविविहगेविजउत्तरकंचुइज्जे, पडिकप्पिते, झयपड़ागवरपंचामेल
आरूढ़हत्थारोहे गहियाउह पहरणे । अण्णे य तत्थ बहवे आसे पासति, सन्नद्धबद्धवम्मियगुड़िते, आविद्धगुड़े, अोसारियपक्खारे, उनरकंचुइय-प्रोचूलमुहचंडाधर-चामरथासकपरिमंडियकड़ीए, आरूढ़े अस्सारोहे, गहियाउहपहरणे । अण्णे य तत्थ बहवे पुरिसे पासति, सन्नद्धब द्ववम्मियकवए, उप्पोलियसरासण पट्टीए, पिणद्धगेवेज्जे, विमलवरबद्धचिंधष, गहियाउहपहणे । तेसि च णं पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासति अवोडगबंधणं उक्त्तिकगणनासं, नेहत्तप्पियगत्तं, वझरकडिजुयनियत्थं, कंठे गुणरत्तमल्लदामं, चुण्ण
(१) छाया-तत्र बहून् हस्तिनः पश्यति; सन्नद्धबद्धवर्मिकगुडितान् , उत्पीडितकक्षान् , उद्दामितघंटान, नानामणिरत्नविविधप्रैवेयकोत्तरकंचुकितान् , प्रतिकल्पितान्, ध्वजपताकावरपंचापीडाऽऽरूढ़हस्त्यारोहान् , गृहीतायुधप्रहरणान् । अन्यांश्च तत्र बहूनश्वान् पश्यति, सनद्धबद्धवर्मिकगुडितान् , अाविद्भगुडान्, अवसारितपक्वरान् उत्तरकंचुकिताऽवचूल कमुखचंडाधर-चामरस्थासकपरिमंडितकटिकान् , अारूढाश्वारोहान् , गृहीतायुधप्रहरणान् । अन्यां च तत्र बहून् पुरुषान् पश्यति सन्न दबद्ध वर्मितकवचान् . उत्पीडितशरासनपट्टि - कान, पिनद्धग्रैवेयकान् , विमल-वर-बद्ध-चिन्ह-पट्टान् . गृहीतायुधप्रहरणान् , तेषां च पुरुषाणां मध्यगतमेकं पुरुष पश्यति, अबकोटकबन्धनम् , उत्कृत्तकर्णनासं, स्नेहस्नेहितगात्रम् वध्य करकटियुगनिवसितं , कंठे गुणरक्तमाल्यदामानं, चूर्णगुण्डितगात्रम् , सत्रस्तं, वध्यप्राणप्रियम् । बाह्यप्रणप्रियम् ) तिलंतिलं चैव च्छिद्यमानम् , काकणीमांसानि खाद्यमानम् , पापं, कर्कशतैर्हन्यमानम् , अनेकनरनारी - संपरिवृतं चत्वरे चत्वरे खण्डपटहेनोंद्घोष्यमाणम्, इदं चैतद्पमुद्घोषणं शृणोति नो खलु देवानुप्रिया ! उज्झितकस्य दारकस्य कश्चिद् राजा वा राजपुत्रो वाऽऽपराध्यति, अात्मनस्तस्य स्वकानि कर्माण्यपराध्यन्ति ।
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