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दसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[१३१
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अश्व को संत्रस्त करने के लिये चमड़े का चाबुक या टूटे हुए बांस वग़रह से उसे ताड़ित किया जा रहा है उस व्यक्ति की ऐसी दशा क्यों हो रही है ? उस के चारों ओर स्त्री पुरुषों का जमघट क्यों लगा हुआ है ? वह जनता के लिये एक घृणोत्पादक घटना - रूप क्यों बना हुआ है ? इस का उत्तर स्पष्ट है, उस ने कोई ऐसा अपराध किया है जिस के फल स्वरूप यह सब कुछ हो रहा है, बिना अपराध के किसी को दण्ड नहीं मिलता और अपराधी का दण्ड भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह एक प्राकृतिक नियम है। इसी के अनुसार यह उद्घोषणा थी कि इस व्यक्ति को कोई दूसरा दण्ड देने वाला नहीं है किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्ड दे रहे हैं, अर्थात् राज्य की ओर से इस के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह इसी के किये हुए कमां का परिणाम है
I
मनुष्य जो कुछ करता है उसी के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है है । देखिए भगवान् महावीर स्वामी ने कितनी सुन्दर बात कही है
'जं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं तमेव आगच्छति संपराए ।
कर्म
अर्थात् जिस जीव ने जैसा जिस ने एकान्त दुःखरूप नरक भव का
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एगं तु दुक्खं भवमज्जरणत्ता, वेदंति दुक्खी तमरणंतदुक्खं ॥ २३ ॥ | श्री सूत्रकृतांग० अध्ययन ५, उद्द े० २ ]
किया है, वही उस को दूसरे भव में प्राप्त होता है । कर्म बाधा है वह अनन्त दुःखरूप नरक को भोगता उद्घोषणा एक खण्डपटह के द्वारा की जा रही थी । खण्डपटह-फूटे ढोल का नाम है । उस समय घोषणा या मुनादि की यही प्रथा होगी और आज भी प्रायः ऐसी ही प्रथा है कि मुनादि करने वाला प्रसिद्ध २ स्थानों पर पहले ढोल पीटता या घंटी बजाता है फिर वह घोषणा करता है। इसी से मिलता जुलता रिवाज
उस समय था ।
राजमार्ग पर जहां कि चार, पांच रास्ते इकट्ठे होते हैं यह घोषणा की जा रही है कि हे महानुभावो ! उज्झतक कुमार को जो दण्ड दिया जा रहा है इस में कोई राजा अथवा राज - पुत्र कारण नहीं अर्थात् इस में किसी राज - कर्मचारी आदि का कोई दोष नहीं, किन्तु यह सब इस के अपने ही किये हुए पातकमय कर्मों का अपराध है दूसरे शब्दों में कहें तो इस को दण्ड देने वाले हम नहीं हैं किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्डित कर रहे हैं।
इस उल्लेख में, फलप्रदाता कर्म ही है कोई अन्य व्यक्ति नहीं यह भी भली भांति सूचित किया गया है ।
• उज्झितक कुमार की इस दशा को देखकर श्री गौतम स्वामी के हृदय में क्या विचार उत्पन्न हुआ और उस के विषय में उन्हों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से क्या कहा । अत्र सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं -
मूल
तते यां से भगवत्र गोतमस्स तं पुरिसं पासिता इमे अज्झत्थिते
(१) यद् यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म तदेवागच्छति सम्पराये |
एकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दुःखिनस्तमनन्तदुःखम् ॥
(२) छाया - ततस्तस्य भगवतो गौतमस्य तं पुरुषं दृष्ट्वाऽयमाध्यात्मिकः ५ समुदपद्यत, अहो श्रयं पुरुषः यावद् निरयप्रतिरूपां वेदनां वेदयति, इति कृत्वा वाणजग्रामे नगरे उच्चनीचमध्यमकुले अटन्यथापर्याप्तं समुदानं ( भैक्ष्यम् ) गृहाति गृहीत्वा वाणिजग्रामस्य नगरस्य मध्यमध्येन यावत् प्रतिदर्शयति श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - एवं खलु श्रहं भदन्त ! युष्मा
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