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श्री विपाक सूत्र -
[दूसरा अध्याय
१३४]
रायमग्गे तेणेव श्रगाढे, तत्थ रणं बहवे हत्थी पास मि सन्नद्धवद्भवम्मियगडिते से ले कर होणं इमे परिमे व निरयपडिरूत्रिय वेयरणं” यहां तक के पाठ का ग्रहण सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या इसी अध्ययन के पृष्ठ १२१ से लेकर १३१ तक के पृष्ठों में कर दी गई है ।
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“ -- आसि १ जाव पच्चरणुभवमाणे - " यहां पठित " जाव यावत् - 33 पद से किंनामए वा किंगोत्तए वा कयरंसि गामंसि वा नगरांस वा किं वा दच्चा किंवा भोच्चा किंवा समयरिता केसि वापर पोरा' दुच्चिरणां दुपडिक्कन्तारणं सुहाणं पाचारण कम्माणं पावर्ग फलवित्तिविसेसं - " इन पदों का ग्रहण करना। इन पदों की व्याख्या पृष्ठ ५१ पर की जा चुकी है। समुदान- शब्द का कोषकारों ने “ – भिक्षा या १२ कुल को या उच्च कुल समुदाय की गोचरी - भिक्षा - " ऐसा अर्थ लिखा है । परन्तु श्राचाराग सूत्र के द्वित्तीय तस्कन्ध के पिराडेध्ययन के द्वितीय उद्देश में आहार - ग्रहण की विधि का वर्णन बड़ा सुन्दर किया गया है । वहां लिखा है -
साधु, (१) उग्रकुल (२) भोगकुल, (३) राजन्य कुल, (४) क्षत्रियकुल, (५) ह्रदवाकुकुल, (६) हरिवंश कुल. (७) गोष्ठकुल. (८) वैश्यकुल, (९) नापितकुल, (१०) वर्धकिकुल, (११) ग्रामरक्षककुल, (१२) तन्तुवायकुल, इन कुलों और इसी प्रकार के अन्य अनिन्दय एव प्रामाणिक कुलों में भी भिक्षा के लिये जा सकता है । सारांश यह है कि अनेक से थोड़ी २ ग्रहण की गई भिक्षा' को
समुदान कहते हैं।
तथा " भिक्षा ला कर दिखाना " इस में विनय सूचना के अतिरिक्त शास्त्रीय नियम का भी - पालन होता है । गोचरी करने वाले भिक्षु के लिये यह नियम है कि भिक्षा ला कर वह सब से प्रथम पूजनीय रात्निक रत्नाधिक ज्ञानदर्शन और चारित्र में श्रेष्ठ, अथवा साधुत्व प्राप्ति की अवस्था से बड़ा, दीक्षा वृद्ध । को दिखावे अन्य को नहीं । दूसरे शब्दों में साधु गृहस्थों से साधुकल्प के अनुसार चारों प्रकार का भोजन एकत्रित कर सर्व प्रथम रस्नार्षिक को ही दिखावं । यदि वह गुरु आदि से पूर्व ही किसी शिष्य आदि को दिखाता है तो उसको यातना लगती है । कारण कि ऐसा करना विनय-धम की अवहेलना करना है | आगमों में भी यहीं आता है। दयाश्रुतस्कन्म सूत्र में लिखा है -
(१) स्थानांग आदि सूत्रों में निन् - साधु को नौ कोटियों से शुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान लिखा है । नौ कोटियां निम्नोक्त हैं -
(१) साधु आहार के लिये स्वयं जीनों की हिंसा न करे (२) दूसरे द्वारा हिंसा न करावे (३) हिंसा करते हुए का अनुमोदन न करे अर्थात् उस की प्रशंसा न करे, (४) आहार आदि स्वयं न पकावे, (५) दूसरे से न पकवावे (६) पकाते हुए अनुमोदन न करे (७) बाहार आदि स्वयं न खरीदे. (८) दूसरे को खरीदने के लिये न कहे, (९) खरीदते हुए किसी व्यक्ति का अनुमोदन न करे । ये समस्त कोटियां मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से ग्रहण की होती हैं । (२) " आयः सम्यग्दर्शनाथच्चाप्तिलक्षणः तस्व शातना - खण्डना इत्याह--अर्थात् जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास अथवा भंग होता है उस को प्राशावना कहते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो अक्रिया असभ्यता का नाम आशातना है - यह कहा जा सकता है ।
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