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११४)
श्री विपाक सूत्र
[दूसरा अध्याय
(५४) शकटयुद्धकला- रथी का युद्ध रथी के साथ कैसे, कहां और कब तक होना चाहिये ? रथी को कहां तक युद्धकला से परिचित होना चाहिये ? रथ को किन किन अस्त्र, शस्त्रों से सुसज्जित रखना चाहिये ? इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला के द्वारा दी जाती है ।
(५५) गरुड़-युद्ध-कला- सेना की रचना अागे से छोटी, पतली और पीछे से क्रमशः मोटी क्यों रखनी चाहिये । सेना की ऐसा रचना करने से और शत्रुयों पर छापा मारने से क्या तात्कालिक प्रभाव रहता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है।
(५६) दृष्टि-युद्ध-कला-अांखों से आंखें मिला कर परपक्ष के लोगों को कैसे बलहीन एवं निकम्मे बनाया जा सकता है। इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा कराया जाता है।
(५७) वाग-युद्ध-कला-युक्तिवाद, तकव और बुद्धिवाद की सहायता से पर-पक्ष के विषय का खण्डन करना और स्वपक्ष का मण्डन करना और भांति भांति के सामान्य :
एडन करना और भांति भांति के सामान्य और गूढ़ विषयों पर शास्त्रार्थ करना, इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है ।
(५८) मुष्टि-युद्ध-कला-हाथों को बान्धकर मुष्टि बना कर और उन के द्वारा नाना । से विधिपूर्वक घुसामारी खेल कर परपक्ष को पराजित करना, इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं ।
(५९) बाहु-युद्ध-कला-इस में मुष्टि के स्थान पर भुजाओं से युद्ध करने की शिक्षा दी जाती है।
(६०) दण्ड-युद्ध-कला- इस कला में दण्डों के द्वारा युद्ध करना सिखाया जाता है । कसे और कितने लम्बे दण्ड होने चाहिये और किस ढंग से चलाये जाने चाहिये ? ताकि शत्रु से अपने को सुरक्षित रखा जा सके ? इत्यादि बातें भी इस कला से सिखाई जाती हैं।
(६१) शास्त्र-युद्धकला-इस कला के द्वारा पठित शास्त्रीय ज्ञान को खण्डन मण्डन के रूप में बोल कर या लिख कर प्रकट करने की युक्तियां सिखाई जाती हैं।
(६२) सर्प-मर्दनकला-सर्प के काटे हुत्रों की संजीवनी औषधियां कौन कौन सी हैं ? वे कौनसी जड़ी बूटियां हैं जिनके सूघने या सुघा देने मात्र से भयंकर से भयंकर जहरीले सो का विष दूर किया जा सकता है ? सपा को कोल कर कैसे रखा जा सकता है ? इत्यादि बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं ।
(६३) भूतादि-मर्दन-कला- भूतादि क्या हैं ? ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं ? इन में निर्बल और सबल जातियों के कौन से भूत होते हैं । इन को वश में करने की क्या रीति होती है ? कौन से मन्त्र तथा तन्त्रों के आगे इन की शक्तियां काम नहीं कर पाती १ उन्हें कैसे, कहां, कब और कितने समय तक सिद्ध करना पड़ता हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा सिखाया जाता है।
(६४) मन्त्रविधि-कला-मन्त्रों के जप जाप की कौन सी विधि है ? कौन मन्त्र, कब, कहां कैसे और कितने जप-जाप के पश्चात् सिद्ध होता है ? जाप से जब वे सिद्ध हो जाते हैं. तब सम्पूर्ण ऐहिक इच्छाओं की पूर्ति कैसे होती है ? उन से दैहिक, दैविक, श्रीर भौतिक बाधायें निमूल कैसे की जाती हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है ।
(६५) यन्त्रविधिकला-मुख से मन्त्रों का उच्चारण करते हुए किसी धातु के पत्रों या भोजपत्र या साधारण कागज या दीवाल आदि पर नियमित खाने बनाना और उन में परिमित अंकों का भरना यन्त्र का लिखना कहलाता है। यह यन्त्र कब लिखे जाते हैं ? मनोरथों के भेद से ये मुख्यतया कितने प्रकार के होते हैं ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है ।
(६६) तन्त्रविधिकला-तरह २ के टोने करना, उतारे करना और विधान के साथ उन्हें बस्तियों
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