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श्री विपाक सूत्र
[दूमरा अध्याय
कल्पना की है।
नगर का वर्णक (वर्णन-प्रकरण) प्रथम अध्ययन में कहा जा चुका है, एवं महाराज मित्र और महाराणी श्री देवी का वर्णक भी प्रथम अध्ययन कथित वर्णक के तुल्य ही जान लेना। केवल नाम भेद है, वर्णक पाठ में भिन्नता नहीं । तात्पर्य यह है कि वर्णक पद से नगर, राजा, राणी आदि के विषय में किसी नाम से भी सूत्र में एक बार जो वर्णन कर दिया गया है. उस वर्णन का सूचक यह "वरणो -वर्णकः"
कामश्वजा गणिका--कामध्वजा एक प्रतिष्ठित वेश्या थी । सूत्रगत वर्णन से प्रतीत होता है, कि वह रूप लावण्य में अद्वितीय, संगीत और नृत्यकला में पारंगत तथा राजमान्य थी । इस से यह निश्चित होता है कि वह कोई साधारण बाजारु स्त्री नहीं थी किन्तु एक कलाप्रदर्शक सुयोग्य व्यक्ति की तरह प्रतिष्ठापूर्वक कलाकार स्त्री के रूप में अपना जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री थी। उस के अंगोपांग आदि में किसी प्रकार की न्यूनता या विकृति नहीं थी, उसका शरीर लक्षण, व्यंजनादि से युक्त, मानादि से पूर्ण और मनोहर था ।
“बावत्तरीकलापंडिया-द्वासप्ततिकलापंडिता" अर्थात् वह कामध्वजा ७२ कलाओं में प्रवीण थी । कला का अर्थ है किसी कार्य को भली भांति करने का कौशल । पुरुषों में कलाएँ ७२ होती हैं । इन कलाओं में से. अब तक कई कलात्रों का विकास हुआ है और कई एक का विनाश । इन में कुछ ऐसी भी हैं, जिन में कई प्रकार के परिवर्तन और संशोधन हुए हैं। उन कलाओं के नाम ये हैं
(१) लेखन-कला-लिखने की कला का नाम है। इस कला के द्वारा मनुष्य अपने विचारों को बिना बोले दूसरों पर भली भांति प्रकट कर सकता है।
(२) गणित-कला- इस कला से वस्तुओं की संख्या और उन के परिमाण या नाप तौल का उचित ज्ञान हो जाता है ।।
(३) रूपपरावर्तन-कला-- इस कला के द्वारा लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र और चित्र आदि में यथेच्छ रूप का निर्माण किया जा सकता है।
(४) नृत्य-कला- इस कला में सुर, ताल आदि की गति के अनुसार अनेकविध नृत्य के प्रकार सिखाए जाते हैं।
(५) गीत-कला- इस कला से "- वि.स समय कौनसा स्वर आलापना चाहिये ? अमुक स्वर के अमुक समय बालापने से क्या प्रभाव पड़ता है ? ---" इन समस्त विकल्पों का बोध हो जाता है।
(६) ताल-कला- इस कला के द्वारा संगीत के सात स्वरों ( १-षड्ज, २-ऋषभ ३- गान्धार ४ मध्यम, ५-- पंचम, ६ घेवत, ७- निषाद ) के अनुसार अपने हाथ या पैरों की गति को, ढोल, मृदंग या तबला पर या केवल ताली अथवा चुटकी बजा कर एवं जमीन पर पैर की डाट लगाकर साधा जाता है।
(७) बाजिंत्र-कला- इस कला से संगीत के स्वरभेद और ताल, लाग, डांट आदि की गति को निहार कर बाजा बजाना सीखा जाता है।
(८) बांसुरी बजाने की कला- इस कला से बांसुरी और भेरी अादि को अनेकों प्रकार से बजाना सिखाया जाता है।
(९) नरलक्षण-कला- इस कला से " - कौन मनुष्य किस प्रक्रति वाला है? कौन मनुष्य
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