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दूसरा अध्याया
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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(३१) धतकला-का शाब्दिक अर्थ है जूया । जूना भी प्राचीन काल में कलाओं में परिगणित होता था। इस का उद्देश्य केवल मनोविनोद रहता था । इस में होने वाली हार जीत शाब्दिक एवं मनोविनोद का एक प्रकार समझी जाती थी । मनो वनोद के साथ २ यह विजेता बनने के लिये बौद्धिक प्रगति का कारण भी बनता था । परन्तु ज्यों २ समय बीतता गया त्यों २ इस कला का दुरुपयोग होने लगा । यह मात्र मनोविनोद की प्रकिया न रह कर जीवन के लिये अभिशाप का रूप धारण कर गई । उसी का यह दुःखान्त परिणाम हुअा कि धर्मर राज युधिष्ठिर जैसे मेधावी व्यक्ति भी सती - शिरोमणी द्रौपदी जैसी आदर्श महिलाओं को दाव पर लगा बैठे और अन्त में उन्हें वनों में जीवन की घड़ियां व्यतीत करनी पड़ीं । नल ने भी इसी कला के दुरुपयोग से अपने साम्राज्य से हाथ धोया था। ऐसे एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं । सारांश यह है कि पहले समय में इस कला को मनोविनोद का एक साधन समझा जाता था ।।
(३२) व्यापारकला - इस कला द्वारा, विशेषरूपेण लेन देन या खरीदने बेचने का काम करना सिखाया जाता है । व्यापार में सचाई और ईमानदारी की कितनी अधिक आवश्यकता है ? सम्पत्ति के बढ़ाने के प्रधान साधन कौन २ से हैं ? कल कारखाने कहां डाले जाते हैं ? कोन सा व्यापार कहां पर सुविधा-पूर्वक हो सकता है ? इत्यादि बातों का भी इस कला द्वारा भान कराया जाता है ।
(३३) राजसेवा-कला-इस कला द्वारा लोगों को राजसेवा का बोध कराया जाता है । राजा को राज्य की रक्षा और हर प्रकार की उन्नति के लिये केवल बन्धे हुए टैक्स दे कर ही अलग हो जाना राजपेधा नहीं है, परन्तु राज्य पर या राजा पर कोई मामला श्रा पड़ने पर तन से, मन से और धन से सहायता पहुंचाना और उस की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व भी लगाने में संकुचित न होने का नान राज-सेवा है । इत्यादि बातें भी इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं।
(३४) शकुन विचार-कला-इस कला के द्वारा तरह २ के शकुन और अपशकुन को जानने की शक्ति मनुष्य में भली भांति आ जाती है। प्रत्येक काम को प्रारम्भ करते समय लोग शकुन को सोचने लगते हैं। पशु पक्षियों की बोली से उन के चलते समय दा हने या बाएं आ पड़ने से, किसी सधवा या विधवा के सन्मुख आ जाने से, इत्यादि कई बातों से शुभ या अशुभ शकुन की जानकारी इस कला के द्वारा हो जाती है।
(३५) वायुस्तम्भन कला-वायु को किस तरह रोका जा सकता है । उस का रुख मनचाही दिशा में किस प्रकार घुमाया जा सकता है ? रुकी हुई वायु के बल और तोल का अन्दाजा कैसे लगाया जाता है ? उसका कितना जबदस्त बल होता है ? उससे कौन ५ से काम लिये जा सकते हैं ? इत्यादि आवश्यक और उपयोगी अनेकों बातें इस कला के द्वारा सिखाई जाती हैं।
(३६) अग्निस्तम्भन कला - धधकती हुई अग्नि बिना किसी वस्तु को हानि पहुंचाए वहीं की वहीं कैसे ठहराई जा सकती है ? चारों ओर से धकधक करती हुई अग्नि में प्रवेश कर और मन चाहे उतने समय तक उस में ठहर कर बाल २ सुरिक्षत उस से कैसे निकला जा सकता सकता है ? और आग के दहकते हुए अंगारों को हाथ या मुह में कैसे रखा जा सकता है ? इत्यादि अनेकों हितकारी बातों का ज्ञान इस कला द्वारा प्राप्त किया जाता है ।
(३७) मेघवृष्टि-कला-मेघ कितने प्रकार के होते हैं ? उनके बनने का समय कौन सा है ? मूसलाधार वर्षा करने वाले मेव कैसे रंगरूप के होते हैं ? इन्द्र धनुष क्या है ? वर्षा के समय ही क्यों
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