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१०२)
श्रो विपाक सूत्र
प्रथम अध्याय
ने अपने गुरु आर्य सुधर्मा स्वामी से जो यह पूछा था कि - विपाकश्रुत के प्रथम श्रतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ है १ मृगापुत्र का अथ से इति पर्यन्त वर्णन ही अार्य सुधर्मा स्वामी की ओर से जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर है । कारण कि मृगापुत्र का समस्त जीवन वृत्तान्त सुनाने के बाद वे कहते हैं कि हे जम्बू ! यही प्रथम अध्ययन का अर्थ है जिस को मैंने श्रमण भगवान् महावीर से सुना है और तुम को सुनाया है।
"ति बेमि-इति ब्रवीमि" इस प्रकार मैं कहता हूँ । यहां पर इति शब्द समाप्ति अर्थ का बोधक है । तथा "ब्रवीमि” का भावार्थ है कि मैंने तीर्थंकर देव और गौतमादि गणधरों से इस अध्ययन का जैसे स्वरूप सुना है वैसा ही तुम से कह रहा हूँ इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं है ।
इस कथन से आर्य सुधर्मा स्वामी की जो विनीतता बोधित होती है उस के उपलक्ष्य में उन्हें जितना भी साधु-वाद दिया जावे उतना ही कम है । वास्तव में धर्मरूप कल्पवृक्ष का मूल ही विनय है । "-विणयमूलं हि धम्मो-" ।
सारांश- यह अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है । इस में मृगापुत्र के जीवन की तीन अवस्थाओं का वर्णन पाया जाता है -- अतीत वर्तमान और अनागत । इन तीनों ही अवस्थात्रों में उपलब्ध होने वाला मृगापुत्र का जीवन, हृदय-तंत्री को स्तब्ध कर देने वाला है उसकी वर्तमान दशा जो कि अतीत दशा का विपाकरूप है । को देखते हुए कहना पड़ता है कि मानव के जीवन में भयंकर से भयंकर और कल्पनातीत परिस्थिति का उपस्थित होना भी अस्वाभाविक नहीं है । मृगापुत्र की यह जीवन कथा जितनी करुणा जनक है उतनी बोधदायक भी है । उसने पूर्व भव में केवल स्वार्थ तत्परता के वशीभूत होकर जो जो अत्याचार किये उसी का परिणाम रूप यह दण्ड उसे कर्मवाद के न्यायालय से मिला है। इस पर से विचारशील पुरुषों को जीवन-सुधार का जो मार्ग प्रात होता है उस पर सावधानी से चलने वाला व्यक्ति इस प्रकार की उग्रयातनात्रों के पास से बहुत अंश में बच जाता है। अतः विचारवान पुरुषों को चाहिये कि वे अपने श्रात्मा के हित के लिये पर का हित करने में अधिक यत्न करें । और इस प्रकार का कोई प्राचरण न कर कि जिस से परभव में उन्हें अधिक मात्रा में दुःखमयी यातनाओं का शिकार बनना पड़े। किन्तु पापभीरु होकर धर्माचरण की ओर बढ़ । यही इस कथावृत्त का सार है । मृगापुत्रीय अध्ययन विशेषतः अधिकारी लोगों के सन्मुख नड़े सुन्दर मार्ग-दर्शक के रूप में उपस्थित हो उन्हें कर्तव्य वमुखता का दुष्परिणाम दिखा कर कर्तव्यपालन की ओर सजीव प्रेरणा देता है, अतः अधिकारी लोगों को अपने भावी जीवन को दुष्कर्मों से बचाने का यत्न करना चाहिए तभी जीवन को सुखी एवं निरापद बनाया जा सकेगा।
॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
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