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अथ द्वितीय अध्याय
जीवन का मूल्य कर्तव्यपालन में है। कतव्यशून्य जीवन का संसार में कोई महत्त्व नहीं । कतव्य की परिभाषा है-सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रतिपादित नियमों को जीवन में लाना और उनके आचरण में प्रतिहारी की भांति सावधान रहना-किसी प्रकार का भी प्रमाद नहीं करना । कर्तव्यपालक व्यक्ति ही वास्तव में अहिंसा भगवती का अाराधक बन सकता है।
अहिसा सुखों की जननी हे अथ च 'स्वर्गों को देने वाली है । अहिंसा की आराधना जीवात्मा को कर्मजन्य संसार चक्र से निकाल कर मोक्ष में पहुँचा देने वाली है। परन्तु अहिंसा का पालन आचरण-शुद्धि पर निर्भर है। आचरणहीन- आचरणशून्य जीवन का संसार में कोई मान नहीं और नाहीं उसे धर्मशास्त्र' पवित्र कर सकते हैं।
आचरण - शुद्धि, आचरण की महानता एवं विशिष्टता के बोध होने के अनन्तर ही अपनाई जा सकती है, अथवा यू कहें कि आचरणशुद्धि आचरणहीन मनुष्य के कर्मजन्य दुष्परिणाम का भान होने के अनन्तर सुचारूप से की जा सकती है, और उस में ही दृढ़ता की अधिक संभावना रहती है।
___ इसी लिये सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र के उज्झितक नामक द्वितीय अध्ययन में आचरण-हीनता का दुष्परिणाम दिखाकर आचरणशुद्धि के लिये बलवती प्रेरणा की है। उस द्वितीय अध्ययन का आदिम सूत्र निम्नप्रकार है
मूल-जति णं भंते । समणेणं जाव संपणं दहविवागाणं पढ़मस्स अज्झयणस्स
(१) का स्वर्गदा ? प्राणभृतामहिंसा-"अर्थात् स्वर्ग देने वाली कौन है ? उत्तर -प्राणिमात्र की अहिंसा-दया।
(२) आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः-अर्थात् प्राचारहीन मनुष्य को धर्मशास्त्र भी पवित्र नहीं कर सकते तात्पर्य यह है कि- आचारभ्रष्ट व्यक्ति का शास्त्राध्ययन भी निष्फल है ।
(३) छाया- यदि भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन दुःखविपाकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । द्वितीयस्य भदन्त ! अध्ययनस्य दुखविपाकानां श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः । ततः स सुधमानगारो जम्बू-अनगारमेवमवदत् - एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिजग्राम नाम नगरमभूत् , ऋद्धि० तस्य वाणिजग्रामस्य उत्तर पौस्त्ये दिग्भागे दूतिपलाशं नामोद्यानमभूत तत्र दूतिपलाशे सुधर्मणो यक्षस्य यक्षायतनमभूत् । तत्र वाणजग्रामे मित्रो नाम राजाऽभवत् । वर्णकः तस्य मत्रर य राज्ञः श्री: नाम देवी अभूत् । वर्णकः । तत्र वाणिजग्रामे कामध्वजा नाम गणिका अभूत् । अहीन० यावत् सुरूपा, द्वासप्ततिकलापण्डिता, चतुःषष्टिगणिकागुणोपेता, एकोनविंशविशेषे' यां रममाणा, एकविंशति रति-गुणप्रधाना, द्वात्रिंशत्पुरुषोपचारकुशला प्रतिबोधितसुप्तनवांगा, अष्टादशदेशीभाषा-विशारदा, शृगारागारचारुवेषा, गीतरतिगान्धवनाट्यकुशला, संगतगत० सुन्दरस्तन. उच्छित वजा, सहस्रलाभा, विस्तीर्ण छत्रचामर बगलव्यजनिका, कर्णीरथप्रजाता चाप्यभवत् । बहूनां गणिका सहस्राणामाधिपत्य यावत् विहरति ।
+ एकोनत्रिशद् विशेषाणां समाहार इति एकोनत्रिशद्-विशेषी तस्यामिति भावः ।
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