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प्रथम अध्याय)
हिन्दी भाषा टाका सहित ।
प्रश्न - हे भगवन् ! प्रतिक्रमण से इस जीव का किस गुण की प्राप्ति होती है ?
उत्तर --- 'प्रतिकमण से जीव व्रतों के छिद्रों का ढांपता है, अर्थात् ग्रहण किये हुए व्रतों को दोषों से बचाता है। फिर शुद्ध व्रतधारी होकर अत्रवों को रोकता हुया आठ प्रबचा माताओं में [ पांचसमिति और तीन गुप्ति के पालन में | सावधान होजाता है, तथा विशुद्ध – चारित्र को प्राप्त करके उससे अलग न होता हुआ समाधि पूर्वक संयम-मार्ग में विचरता है।
“-समाहिपत्ते--समाधिप्राप्तः--' पद का अर्थ है समाधि को प्राप्त हश्रा । सूत्रकतांग के टीकाका श्री शीलांकाचाय के मतानुसार समाधि दो प्रकार की होती है ,१) द्रव्यसमाधि और () भाव समाधि। .
. मनोहर शब्द आदि पांच विषयों की प्राप्ति होने पर जो श्रोत्रादि इन्द्रियों की पुष्टि होती है, उसे व्यसमाधि कहते हैं. अथवा परस्पर विरोध नहीं रखने वाले दो द्रव्य अथवा बहा द्रव्यों के मिलाने से जो रस बिगड़ता नहीं किन्तु उसकी पुष्टि होती है उसे द्रव्यसमाधि कहते है जैसे दूध और शक्कर, तथा दही और गुड़ मिलाने से अथवा शाकादि में नमक मिर्च आदि मिलाने से रस की पुष्टि होती है। अतः एव इस मिश्रण को द्रव्यसमाधि कहते हैं। अथवा जिस द्रव्य के खाने और पीने से शान्ति प्राप्त होती रहे उसे द्रव्य समाधि कहते हैं । अथवा तराज़ के ऊपर जिस वस्तु को चढ़ाने से दोनों बाजू समान हों उसे द्रव्यसमाधि कहते हैं।
भाव समाधि, दर्शन ज्ञान, चारित्र और तप भेद से चार प्रकार की है । जो पुरुष दर्शनसमाधि मे स्थित है वह जिन भगवान के वचनों से रंगा हुआ अन्तः करण वाला होने के कारण वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान कुबुद्धिरूपी वायु से विचलित नहीं किया जा सकता है । ज्ञान समाधि वाला पुरुष ज्यों ज्यों शास्त्रों का अध्ययन करता हैं त्यों त्यों वह भावसमाधि में प्रवृत्त हो जाता है । चारित्र समाधि में स्थित मुनि दरिद्र होने पर भी विषय-सुख से निस्पृह होने के कारण परमशान्ति का अनुभव करता है। कहा भी है कि-२ जिस के राग, मद और मोह नष्ट हो गये हैं वह मुनि तृण की शय्या पर स्थित हो कर भी जो आनन्द अनुभव करता है, उसे चक्रवर्ती राजा भी कहां पा सकता है तप समाधि वाला पुरुष भारी तप करने पर भी ग्लानि का अनुभव नहीं करता तथा क्षुधा और तृषा आदि से वह पीड़ित नहीं होता । अस्तु । प्रस्तुत प्रकरण में जो समाधि का वर्णन है वह भाव-समाधि का वर्णन ही समझना चाहिये।
___ तदनन्तर मृगापुत्र का जीव प्रथम देवलोक से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ की भान्ति धनी कुलों में उत्पन्न होगा, तथा मनुष्य की सम्पूर्ण कलाओं में निपुणता प्राप्त कर दृढ़ -- प्रतिज्ञ की तरह ही प्रव्रज्या धारण कर अनगार वृत्ति के यथावत् पालन से अष्ट वध कर्मों का विच्छेद करता हुआ सिद्धगति-मोक्ष को प्राप्त करेगा। इस कथन में संसार के आवागमन चक्र में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करने वाले जीव की जीवन यात्रा अर्थात् जन्म मरण परम्परा का पर्यवसान कहां पर होता है और वह सदा के लिये सर्वप्रकार के दुखों का अन्त करके वैभाविक परिमाणों से रहित होता हुआ स्वस्वरूप में कब रमण करता
छाया- आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आलोचनया मायनिदान मिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानां, अनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति । ऋजुभावं च जनयति । ऋजुभावं प्रतिपन्नश्च जीवः अमायी स्त्रीवेदनपुसकवेदं च न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ॥५॥
(१) पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ १ पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ । पिहियवयछिद्द पुण जीवे निरुद्धासवे असबल - चरित्ते अटुसु पवयण भायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्परिणहिए विहरइ ॥११॥
छाया-प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति १ प्रतिक्रमणेन व्रतछिद्राणि पिदधाति पिहितव्रतच्छिद्रः पुनर्जीवो निरुद्धास्रवोऽशबलचरित्रश्चाष्टसु प्रवचनमातृषूपयुक्तोऽपृथक्त्वः सुप्रणिहितो विहरति ।
(२) तृणसंस्तार-निविष्टोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः यत् प्राप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ।
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