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अध्याय ?
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हिन्दी भाषा टीका सहित |
“ -- केवलमेव विशिष्टवर्णादियुक्ताः संख्यातीताः स्वस्थाने व्यक्तिभेदेन योनयः जातिमधिकृत्य एकैव योनिर्ग रायते - " ।
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ग्रहण समझना -
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अर्थात् – जिन उत्पत्ति-स्थानों का वर्ण, गन्ध आदि सम है वे सब सामान्यतः एक योनि हैं, और जिन का वर्ण, गन्ध आदि विषम है, विभिन्न है, वे सब उत्पत्तिस्थान पृथक् २ योनि के रूप में स्वीकार किए जाते हैं अस्तु ।
तब इस अर्थविचारणा से प्रकृतोपयोगी तात्पर्य यह फलित हुआ कि मृगापुत्र का जीव सातवीं नरक से निकल कर तिर्यग्योनि के जलचर पञ्चेंद्रिय मत्स्य, कच्छप आदि जीवों ( जिन की कुल कोटियों की संख्या साढ़े बारह लाख है) के प्रत्येक योनिभेद में लाखों बार जन्म और मरण करेगा ।
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"खतीण-मट्टियं खणमाणे इन पदों का अर्थ है-नदी के किनारे की मट्टी को खोदता हुआ। तापर्य यह है कि मृगापुत्र का जीव जब वृषभ रूप में उत्पन्न होकर युवावस्था को प्राप्त हुआ तब वह गंगा नदी के किनारे की मट्टी को खोद रहा था परन्तु अकस्मात् गंगा नदी के किनारे के गिर जने पर वह जल में गिर पड़ा और जल प्रवाह प्रवाहित होने के कारण वह अत्यधिक पीडित एवं दुःखी हो रहा था अन्त में वहीं उस की मृत्यु हो गई ।
“उम्मुक्क० जात्र जोठवण - " पाठ गत "जाव - यावत्" पद से निम्नलिखित समग्र पाठ का
उम्मुकबाल - भावे, विण्णायपरिणयमित्तेर, जोन्वणमगुष्पत्ते -- उन्मुक्त - बालभावः, विज्ञकपरिणतमात्रो यौवनमनुप्राप्तः – ” अर्थात् जिसने बाल अवस्था को छोड़ दिया है, तथा बुद्धि के विकास से जो विज्ञ – हेयोपादेय का ज्ञाता एवं युवावस्था को प्राप्त हो चुका है । “ - तहारूवाणं थेराणं - " यहां पठित तथारूप और स्थविर तथोक्त शास्त्रानुमोदित गुणों को धारण करने वाले की जीवन में आगम - विहित गुण पाये जायें उसे तथारूप कहते हैं ।
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शब्द के अर्थ निम्नोक्त हैंतथारूप संज्ञा है, अर्थात् जिसके
वय - स्थविर (२) प्रव्रज्या -
स्थविर - वृद्ध को स्थविर कहते हैं । स्थविर तीन प्रकार के होते हैं (१) स्थविर और (३) श्रुतस्थविर । साठ वर्ष की आयुवाले को वय - स्थविर कहते हैं । बीस बर्ष की दीक्षापर्याय वाला प्रव्रज्या - स्थविर है और स्थानांग, समवायांग, आदि श्रागमों के ज्ञाता की श्रुत स्थविर संज्ञ है । इसी प्रकार मु ंडित भी द्रव्यमु ंडित और भावमुडित, इन भेदों से दो प्रकार के होते हैं (१) सिर का लोच कराने वाला या मुडवाने वाला द्रव्यमुण्डित ( २ ) परिग्रह आदि को त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने वाला भाव - मुण्डित कहलाता है । तथा अगार का मतलब घर अथवा गृहस्थाश्रम से है । उस से निकल कर त्यागवृत्ति -- साधुधर्म को अंगीकार करना अनगार धर्म है ।
जैसा कि ऊपर भी मूलार्थ में कहा गया है कि भगवान् ने फरमाया कि गौतम ! सुप्रतिष्ठ
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(१) खलीणमहियं- "त्ति खलीनामाकाशस्थां छिन्नतटोपरिवर्तिनीं मृत्तिकामिति वृत्तिकारः अर्थात् - गंगा नदी के किनारे की भूमी का निम्न भाग जल प्रवाह प्रवाहित हो रहा था ऊपर का अवशिष्ट भाग ज्यों का त्यों आकाश - स्थित था, जब वृषभ अपने स्वभावानुसार उस पर खड़ा हो कर मृत्तिका खोदने लगा तब उसके भार से वह आकाशस्थ किनारा गिर पड़ा जिस से वह वृषभ जल प्रवाह से प्रवाहित हो कर मृत्यु का ग्रास बन गया । (२) "विण्य परिणयमिते” – तत्र विज्ञ एव विज्ञक णामापन्न एव च विज्ञकपरिणतमात्रः [ अभयदेवसूरिः ]
स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्धयादिपरि