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श्री विपाक सूत्र -
[प्रथम अध्याय
है - शान्ति शान्ति नाम वाला व्यक्ति अवश्य ही शान्ति (सहिष्णुता) का धनी होगा, यह आवश्यक नहीं है, परन्तु गोत्र में ऐसी बात नहीं होती, गोत्र पद सार्थक होता है, किसी अर्थविशेष का द्योतक होता है जैसे'गौतम' एक गोत्र-कुल (वंश) का नाम है । गौतम शब्द किसी (पूर्वज) प्रधान--पुरुषविशेष का संसूचक है, अतएव वह सार्थक है ।
"पोराणाणां जाव विहरति' यहां पठित 'जाव-यावत्' पद--"दुच्चिन्नाणं दुष्पडिक्कन्ताणं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलविसेसं पच्चणुब्भवमाणे-"इन पदों का बोधक है । इन की व्याख्या पीछे कर दी गई है । अब भगवान् के द्वारा दिये गये उक्त प्रश्नों के उत्तर को सूत्रकार के शब्दों में सुनिये---
मूल-'गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोतमं एवं वयासो एवं खलु गोतमा ! तेण कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे णाम नगरे होत्या, रिद्धत्यिमिय० वएणो । तत्थ णं सयदुवारे णगरे धणवती णामं राया होत्था। तस्स णं सयदुवारस्स णगग्रस्स अदरसामंते दाहिणपुरथिमे दिसीभाए विजयवद्धमाणे णाम खेड़े होत्था रिद्ध० तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई अाभोए यावि होत्था । तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेड़े एक्काई नाम रहकूड़े होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । से णं ए
(१) छाया- गौतम ! 'इति श्रमणो भगवान् महावीरो भगवन्तं गौतममेवमवदत् - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे शतद्वारं नाम नारमभवत् , ऋद्धिस्तिमित० वर्णकः तत्र शतद्वारे नगरे धनपति म राजाऽभवत् । तस्य शतद्वारस्य नगरस्यादूरसामन्ते दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागे विजयवर्द्धमानो नाम खेटोऽवभत् , ऋद्ध० । तस्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतान्याभोग वाप्यभवत् । तत्र विजयवर्द्धमाने खेटे एकादिर्नाम राष्ट्रकूटोऽभवद्, अधार्मिक यावत् दुष्प्रत्यानन्दः । सः एकादी राष्ट्रकूटो विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्चानां ग्रामशतानामाधिपत्यं यावत् पालयमानो विहरति । ततः स एकादिः विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य पञ्च ग्रामशतानि बहुभिः करैश्च भरैश्च वृद्धिभिश्च लञ्चाभिश्च पराभवैश्च देय श्च भेद्यश्च कुन्तकैश्च लंछपोषैश्चादीपनैश्च पान्थकुटै श्चावपीलयन् २ विधर्मयन् २ तर्जयन् २ ताइयन् २ निर्धनान् कुर्वन् २ विरहति .
(२) मूलसत्र के रिद्धस्थिमिय० पद से सत्रकार को “रिद्ध थिमियसमिद्धे' यह पाठ अभिमत है , इस में (१) रिद्ध. (२) स्तिमित (३) समृद्ध ये तीन पद है। रिद्ध शब्द का अर्थ सम्पत्-सम्पन्न होता है, स्तिमित शब्द स्वचक्र और पर चक्र के भय से विमुक्त का बोधक है, और समृद्व शब्द से उत्तरोत्तर बढ़ते हुए धन एवं धान्यादि से परिपूर्ण का ग्रहण होता है । ये सब नगर के विशेषण हैं।
(३) वरणो -वर्णकः, पद से सूत्रकार को श्रौपपातिक सूत्र के नगर-सम्बन्धी वर्णन-प्रकरण का ग्रहण करना अभिमत है।
(१) वृत्तिकार ने “गोयमा ! इ, इन पदों की व्याख्या" - गौतम ! इत्येवमामन्त्र्य इति गम्यते-" इन शब्दों में की है । अर्थात हे गोतम ! इस प्रकार सम्बोधन करके, यह अर्थ वृत्तिकार को इष्ट है। परन्तु जब आगे “गोतमा !" ऐसा सम्बोधन पड़ा हो है फिर पहले सम्बोधन की क्या अवश्यकता थी ? इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने कुछ नहीं लिखा । मेरे विचार में तो मात्र सूत्रों को प्राचीन शैली ही इस में कारण प्रतीत होती है । अन्यथा “गोयमा ! इ' इस पाठांश का अभाव प्रस्तुत प्रकरण में कोई बाधक नहीं था।
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