________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
७० ]
श्री विपाक सूत्र -
[प्रथम अध्याय
वैद्योचित गुणों का सद्भाव है तत्र तो उस का कारित करना तथा उस का वहां जाना ये सब कुछ उपहास्यास्पद ही हो जाता है । हां ! अगर "वैद्यपुत्र"" आदि शब्दों को यौगिक न मान कर रूढ़ अर्थात् संज्ञा-वाचक मान लिया जाय तात्पर्य यह है कि वैद्यपुत्र का "वैद्य का पुत्र" अर्थ न कर के “वैद्यपुत्र'' इस नाम का कोई व्यक्ति विशेष माना जाय तब तो इस के पृथक् निर्देश की कथमपि उपपत्ति हो सकती है । परन्तु इस में भी यह आशंका बाकी रह जाती है कि जिस प्रकार वैद्य शब्द से -- आयुर्वेद का ज्ञाता और चिकित्सक कर्म में निपुण यह अर्थ सुगृहीत होता है उसी प्रकार “वैद्य पुत्र" शब्द का भी कोई स्वतंत्र एवं सुनिश्चत अर्थ है ? जिसका कहीं पर उपयोग हुआ या होता हो ? टीकाकार महानुभावों ने भी इस विषय में कोई मार्ग प्रदर्शित नहीं किया तब प्रस्तुत श्रागम पाठ में वैद्य पुत्र आदि शब्दों की पृथक नियुक्ति किस अभिप्राय से की गई है ? विद्वानों को यह अवश्य विचारणीय है । पाठकों को इतना स्मरण अवश्य रहे कि हमारे इस विचार सन्दोह में हमने अपने सन्देह को ही अभिव्यक्त किया है, इस में किसी प्रकार के आक्षेप प्रधान विचार को कोई स्थान नहीं। हम अमवादी अर्थात् श्रागम प्रमाण का सर्वेसर्वा अनुसरण करने और उसे स्वतः प्रमाण मानने वाले व्यक्तियों में से हैं । इस लिये हमारे श्रागम-विषयक श्रद्धा पूरित हृदय में उस पर आगम पर आक्षेप करने के लिये कोई स्थान नहीं । और प्रस्तुत चर्चा भी श्रद्धा - पूरित हृदय में उत्पन्न हुई हार्दिक सन्देह भावना मूलक ही है । किसी आगम में प्रयुक्त हुए किसी शब्द के विषय में उसके अभिप्राय से अज्ञात होना हमारी छस्थता कोही आभारी है । तथापि हमें गुरु चरणों से इस विषय में जो समाधान प्राप्त हुआ है वह इस प्रकार है -
वैद्य शब्द प्राचीन अनुभवी वृद्ध वैद्य का बोधक है और वैद्यपुत्र उनकी देखरेख में उनके हाथ नीचे काम करने वाले लघु वैद्य का परिचायक है ।
किसी विशिष्ट रोगी के चिकित्सा क्रम में इन दोनों की ही आवश्यकता रहती है । वृद्ध वैद्य के आदेशानुसार लघु वैद्य के द्वारा रोगी का औषधोपचार जितना सुव्यवस्थित रूप से हो सकता है उतना द्य से नहीं हो सकता | आजकल के श्रातुरालयों- हस्तपतालों में भी एक सिवल सर्जन और उसके नीचे अन्य छोटे डॉक्टर होते हैं । इसी भांती उस समय में भी वृद्ध वैद्यों के साथ विशेष अनुभव प्राप्त करने की इच्छा से शिष्य रूप में रहने वाले अन्य लघुवैद्य होते थे जो कि उस समय वैद्यपुत्र के नाम से अभिहित किये जाते थे । इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने वैद्य के साथ वैद्यपुत्र का उल्लेख किया है ।
यहां पर सूत्रकार ने एकादि राष्ट्रकूट के उपलक्ष्य में उसके रुग्ण शरीर सम्बन्धी औषधोपचार के विधान में सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति का निर्देश कर दिया है । रोगी को रोगमुक्त करने एवं स्वास्थ्ययुक्त बनाने में इसी चिकित्सा क्रम का वैद्यक ग्रन्थों में उल्लेख किया गया है । पाठकगण. प्रस्तुत सूत्रगत पाठों में वर्णित चिकित्सा सम्बन्धी विशेष विवेचन तो वैद्यक ग्रन्थों के द्वारा जान सकते हैं, परन्तु यहां तो उस का मात्र दिग्दर्शन कराया जा रहा है.
(१) अभ्यंग :- तैलादि स्निग्ध पदार्थों को शरीर पर मलना अभ्यंग कहलाता है, इसका दूसर नाम तैल-मर्दन है । सरल शब्दों में कहें तो शरीर पर साधारण अथवा औषधि सिद्ध तेल की मालिश को अभ्यंग कहते हैं ।
(२) उर्तन - अभ्यंग के अनन्तर उद्वर्तन का स्थान है । उबटन लगाने को उद्ववर्तन कहते हैं, अर्थात् - तैलादि के अभ्यंग से जनित शरीरगत जो बाह्य स्निग्धता है उस को एवं शरीर गत अन्य मल को दूर करने के लिये जो अनेकविध पदार्थों से निष्पन्न उवटन है उस का अंगोपांगों
For Private And Personal