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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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नहीं हो सकता, इस प्रकार कहे जाने पर ] तथा सेवकों से परित्यक्त, औषध और भैषज्य से निर्विण्णदुःखित, सोलह रोगातकों से अभिभूत, राज्य और राष्ट्र-देश यावत् अन्तःपुर- रणवास में मूर्च्छितआसक्त, एवं राज्य और राष्ट्र का आस्वादन, प्रार्थना, स्पृहा इच्छा, और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि आर्त - मनोव्यथा से व्यथित, दु:ग्वार्त-शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशातइन्द्रियाधीन होने से परतंत्र- स्वाधीनता रहित होकर जीवन व्यतीत करके २५० वर्ष की पूर्णायु को भोग कर समय काल करके इस रत्नप्रभा पृथिवी - नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकी रूप से उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् वह एकादि का जीव भवस्थिति पूरी होने पर नरक से निकलते ही इसी मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगावती नामक देवी की कुक्षि-उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ ।
टीका- पापकर्मा का विपाक फल कितना भयंकर होता है यह एकादि राष्ट्रकूट की इस प्रकार की शोचनीय दशा से भली भांति प्रमाणित हो जाता है, तथा आगामी जन्म में उन मन्द कर्मों का फल भोगते समय किस प्रकार की असह्य वेदनाओं का अनुभव करना पड़ता है, यह भी इस सूत्रलेख से सुनिश्चित हो जाता है । एकादि राष्ट्रकूट अनुभवी वैद्यों के यथाविधि उपचार से भी रोगमुक्त नहीं हो सका, उस के शरीरगत रोगों का प्रतिकार करने में बड़े २ अनुभवी चिकित्सक भी सफल हुए, अन्त में उन्हों ने उसे जवाब दे दिया। इसी प्रकार उसके परिचारकों ने भी उसे छोड़ दिया । और उस ने भी औषधोपचार से तंग आकर अर्थात् उस से कुछ लाभ होते न देखकर औषधि सेवन को त्याग दिया । ये सब कुछ स्वोपार्जित अशुभ कर्मों की विचित्र लीला का ही सजीव चित्र है ।
अष्टांग हृदय नामक वैद्यक ग्रन्थ में लिखा है कि " - यथाशास्त्रं तु निर्णीता, यथाव्याधि- चिकित्सिताः । रोगा ये न शाम्यन्ति ते ज्ञेयाः कर्मजा बुधैः ॥ १॥ अर्थात् जो रोग शास्त्रानुसार सुनिश्चित और चिकित्सत होने पर भी उपशान्त नहीं होते उन्हें कर्मज रोग समझना चाहिये । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि १६ प्रकार के भयंकर रोगों से अभिभूत थच तिरस्कृत होने पर तथा अनेकविध शारीरिक और मानसिक वेदनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करने पर भी एकादि राष्ट्रकूट के प्रलोभन में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह निरन्तर राज्य के उपभोग और राष्ट्र के शासन का इच्छुक बना रहता है। अभी तक भी उसकी काम वासनायों अर्थात् विषय वासनाओं में कमी नहीं आई । इससे अधिक पामरता और क्या हो सकती है। तब इस प्रकार के पामर जीवों का मृत्यु के बाद नरक - गति में जाना अवश्यंभावी होने से एकादि राष्ट्रकूट भी मर कर रत्न-प्रभा नाम के प्रथम नरक में गया। उसने एकादि के भव में २५० वर्ष की आयु तो भोगी मगर उसका बहुत सा भाग उसे आर्त, दुःखार्त और वशार्त दशा में ही व्यतीत करना पड़ा । तात्पर्य यह है कि उसकी आयु का बहुत सा शेष भाग शारीरिक तथा मानसिक दुःखानुभूति में ही समाप्त हुआ । रज्जेय रहय जाव अंते उरे" यहां पर उल्लेख किये गये "जाव यावत्" पद से "कोसे य कोरे लेय वाहणे य पुरे य" इन पदों का ग्रहण समझना । तथा "मुच्छिए, गढिए, गिद्धे, भवन्नं" ( मूर्च्छितः, ग्रथितः, गृद्धः, अभ्युपपन्नः ) इन चारों पदों का अर्थ समान है । इसी प्रकार “श्रासाएमाणे, पत्थे मारणे, पीहेमाणे, अहिलसमारणे" ये पद भी समानार्थक हैं ।
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"अट्ट-दुहट्ट-सट्ट े - आर्तदुःखार्तवशार्तः " की व्याख्या में श्राचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं कि - " आत मनसा दुखितः, दुखार्तो देहेन, वशार्तस्तु इन्द्रियवशेन पीड़ित:, अर्थात् आर्त शब्द मनोजन्य दुःख, दुखार्त शब्द देहजन्य दुःख और वशातं शब्द इन्द्रियजन्य दुख का सूचक है। इन तीनों शब्दों में कर्म - धारय समास है । तात्पर्य यह है कि ये तीनों शब्द विभिन्नार्थक होने से यहां प्रयुक्त किये गये हैं ।
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