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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका महित ।
[७३
अनुवासनास्ति में रात्रि के समय स्नेह के अनुवा सित होने के कारण इसको अनुवासनावस्ति कहते हैं अथवा अच्छे प्रकार से विरेचन होने पर उत्तम प्रकार से पथ्य करने पर शय्या में स्थापित कर के पश्चात् यह अनुवासना दी जाती है इस लिये इसको अनुवासनावस्ति कहते हैं ॥७-८॥ तथा उत्कृष्ट अवयव में दी जाने वाली बत्ति की उत्तर संज्ञा है।
___ इस वर्णन में वस्तिकर्म के भेद और उन भेदों की निर्वचन-पूर्वक व्याख्या तथा निरूह और अनुवासना में द्रव्यकृत विशेषता आदि सम्पूर्ण विषयों का भनी भांति परिचय करा दिया गया है। तथा इस से वृत्तिकार के बस्ति -- सम्बन्धी निर्वचनों का भी अच्छी तरह से समर्थन हो जाता है।
(१२) शिरावध --शिरा नाम नाड़ो का है उस का वेध - वेधन करना शिरावेध कहलाता है इसी का दूसरा नाम नाड़ी वेध है । शिरावेध की प्रक्रिया का निरूपण चक्रदत्त में बहुत अच्छी तरह से किया गया है । पाठक वहीं से देख सकते हैं।
(१३, १४) तक्षण--प्रतक्षण - साधारण कर्तन कर्म को तक्षण, और विशेष रूपेण कर्तन को प्रतक्षण कहते हैं । वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के कथनानुसार - क्षर, लवित्र - चाक आदि शस्त्रों के द्वारा त्वचा का (चमड़ी का ) सामान्य कर्तन --काटना, तक्षण कहलाता है और त्वचा का सूक्ष्म विदारण अर्थात् बारीक शस्त्रों से त्वचा की पतली छाल का विदारण करना प्रतक्षण' है ।
(१५) शिरोबस्ति - सिर में चर्मकोश देकर-बान्धकर उस में औषधि --- द्रव्य - संस्कृत तैलादि को पूर्ण करना-भरना, इस प्रकार के उपचार --विशेष का नाम शिरोबस्ति है [ शिरोबस्तिभि : शिरसि बद्धस्य चर्मकोशस्य द्रव्य-संस्कृत तेलाद्या पूरण लक्षणाभिरिति वृत्तिकार : 1 चक्रदत्त में शिरोबस्ति का विधान पाया जाता है, विस्तारभय से यहां नहीं दिया जाता । पाठक वहीं से देख सकते हैं।
(१६) तर्पण-स्निग्ध पदाथों से शरीर के वृंहण अर्थात् तृप्त करने को तर्पण कहते हैं। चक्रदत्त के चिकित्सा प्रकरण में तर्पण सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है । पाठक वहीं से देख सकते हैं ।
(१७) पुटपाक-अमुक रस का पुट दे कर अग्नि में पकाई हुई औषधि को पुट-पाक कहते हैं । पुटपाक का सांगोपांग वर्णन चक्रदत्त के रसायनाधिकार में किया गया है । प्राकृत-शब्द-महार्णव कोश में पुटपाक के दो अर्थ किये हैं - (१) पुट नामक पात्रों से औषधि का पाक-विशेष (२) पाक से निष्पन्न औषधि-विशेष ।
(१८) छल्नी-स्वचा-छाल को छल्ली कहते हैं । (१९, २०) मूल, कन्द-मूली-गाजर और जिमीकन्द तथा आलू आदि का नाम है । (२१) शिलिका से चरायता आदि औषधि का ग्रहण समझना (२२) गुटिका --अनेक द्रव्यों को महीन पीस कर अमुक औषधि के रस की भावना आदि से निर्माण की गई गोलिये गुटिका कहलाती हैं । (२३, २४) औषध, भैषज्य -- एक द्रव्यनिर्मित औषध के नाम से तथा अनेक-द्रव्य संयोजित भैषज्य के नाम से ख्यात है ।
"संता, तंता, परितंता', इन तीनों पदों में अर्थगत विभिन्नता वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है
'संत" त्ति श्रान्ता देह खेदेन "तंत" त्ति - तान्ता मनःखेदेन, “परितंत" ति - उभयखेदेनेति' अर्थात् शारीरिक खेद से. मानसिक खेद से, तथ दोनों के श्रम से खेदित हुए । तात्पर्य यह है
(१ "तच्छणेहि य” त्ति हुरादिना त्वचस्तनूकरणैः । “पच्छणेहि य” त्ति ह्रस्वैस्त्वचो विदारणैः । (२) तर्पणः स्नेहादिभिः शरीरस्य वृंहणैः [वृत्तिकार:]
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