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६८]
श्री विपाक सूत्र
[ प्रथम अध्याय
किसी एक रोगातंक को भी उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उस को बहुत सा धन देगा । इस प्रकार दो बार, तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस अाज्ञा के यथावत् पालन की मुझे सूचना दो। तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष एकादि राष्ट्रकूट की आज्ञानुसार विजयवद्धमान खेट में जा कर उद्घोषणा करते हैं और वापिस आ कर उस को एकादि राष्ट्रकूट को सूचना दे देते हैं । ततपश्चात् विजयवद्धमान खेट में इस प्रकार को उद्घोषणा का श्रवण कर अनेक वैद्य, वैद्य पुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपत्र. चिाकत्सक और चिकित्सकपुत्र हाथ में शस्त्रपेटिका [ शस्त्रादि रखने का बक्स या थैला ] लेकर अपने २ घरों से निकल पड़ते हैं निकल कर विजयबर्द्धमान खेट के मध्य में से होते हुए जहां एकादि राष्ट्रकूट का घर था वहां पर आ जाते हैं, आ कर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का स्पर्श करते हैं, शरीर- सम्बन्धी परामर्श करने के बाद रोगों का निदान पूछते हैं अर्थात् रोगविनिश्चयार्थ विविध प्रकार के प्रश्न पूछते हैं, प्रश्न पूछने के अनन्तर उन १६ रोगातंकों में से अन्यतम-किसी एक ही रागातंक को उपशान्त करने के लिये अनेक अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, सेचन, अथवा स्वेदन, अवदाहन, अवस्नान, अनुवासन, बस्तिकर्म, निरुह, शिर वेध, तक्षण, प्रतक्षण शिरोबस्ति, तपेण [इन क्रियाओं से तथा पुटपाक, त्वचा, मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, फल और बीज एंव शिलिका (चिरायता) के उपयोग से तथा गुटिका, औषध, भेषज्य आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं अर्थात् इन पूर्वोक्त साधनों का रोगोपशांति के लिये उपयोग करते हैं । परन्तु इन पूर्वोक्त नानाविध उपचारों से वे उन १६ रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समथ न हो सके। जब उन वैद्य और वैद्यपुत्रादि से उन १६ रोगातंकों में से एक रोगातंक का भी उपशमन न हो सका तब वे वैद्य और वैद्य पुत्रादि श्रान्त, तान्त और परितान्त होकर जिधर से आये थे उधर को ही चल दिये ।
___टीका-एकादि राष्ट्रकूट ने रोगाक्रान्त होने पर अपने अनुचरों को कहा कि तुम विजयवर्द्धमान खेट के प्रसिद्ध २ स्थलों पर जाकर यह घोषणा कर दो कि एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में एक साथ ही श्वास कासादि १६ भीषण रोग उत्पन्न हो गये हैं, उन के उपशमन के लिये वैद्यों, ज्ञायकों और चिकित्सकों को बुला रहे हैं। यदि कोई वैद्य, ज्ञायक या चिकित्सक उन के किसी एक रोग को भी उपशान्त कर देगा तो उसको भी वह बहुत सा धन देकर सन्तुष्ट करेगा। अनुचरों ने अपने स्वामी की इच्छानुसार नगर म घोषणा कर दी। इस घोषणा को सुन कर खेट में रहने वाले बहुत से वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सक वहां उपस्थित हुए। उन्हों ने शास्त्रविधि के अनुसार विविध प्रकार के उपचारों द्वारा एकादि के शरीरगत रोगों को शान्त करने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु उस में वे सफल नहीं हो पाये। समस्त रोगों का शमन तो अलग रहा, किसी एक रोग को भी वे शान्त न कर सके। तब सब के सब म्लान मुख से अात्मग्लानि का अनुभव करते हुए वापिस आ गये । प्रस्तुतसूत्र का यह संक्षिप्त भावार्थ है जो कि उस से फलित होता है ।
यहां पर एकादि राष्ट्रकूट का अनुचरों द्वारा घोषणा कराना सूचित करता है कि उस के गृहवेद्योंघरेलू चिकित्सकों के उपचार से उसे कोई लाभ नहीं हुआ । एकादि राष्ट्रकूट एक विशाल प्रान्त का अधपति था और धनसम्पन्न होने के अतिरिक्त एक शासक के रूप में वह वहां विद्यमान था। तब उसके वहां निजी वैद्य न हों और उन से उस ने चिकित्सा न कराई हो, यह संभव ही नहीं हो सकता। परन्तु गृह वैद्यों के उपचार से लाभ न होने पर अन्य वैद्यों को बुलाना उस के लिये अनिवार्य हो जाता है । एतदर्थ ही एकादि राष्ट्रकूट को घोषणा करानी पड़ी हो, यह अधिक सम्भव है। तथा “बहुरत्ना वसुन्धरा" इस अभियुक्तोक्ति
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