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अध्याय]
हिन्दो भाषा टीका सहित।
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जड़ों से। कंदेहि य-कन्दों से। पत्तोहि य-पत्रों से । पुप्फेहि य- पुष्पों से। फलेहि य-फलों से । बीएहि य - बीजों से। सिलियाहि य-चिरायता से । गुलियाहि य-गुटिकाओं - गोलियों से । श्रोसहहि य-औषधियों-जो एक द्रव्य से निर्मित हों, और । भेलज्जेहि य -भैषज्यों - अनेक द्रव्यों से निर्माण की गई औषधियों, के उपचारों से । इच्छति-प्रयत्न करते हैं, अर्थात् इन पूर्वोक्त नाना विध उपचारों से एकादि राष्ट्रकूट के शरीर में उत्पन्न हुए सोलह रोगों में से किसी एक रोग को शमन करने का यत्न करते हैं परन्तु । उव सामित्तते-उपशमन करने में वे । णो चेव-नहीं । संचाएंति -समर्थ हुए अर्थात् उन में से एक रोग को भी वे शमन नहीं कर सके। तते णं-तदनन्तर । ते-वे । बहवे -बहुत से । वेज्जा य गेज्जपुत्ता य ६-वैद्य और वैद्यपुत्र आदि । जाहे-जब । तेसिंउन । सोलसण्हं - सोलह । रोयातंकाणं-रोगातंकों में से । एगमवि रोयायंकं-किसी एक रोगातंक को भी। उवसामित्तर-उपशान्त करने में । णं-वाक्यालंकारार्थक है । णो चेव संचाएंति-समर्थ नहीं हो सके। ताहे- तब । संता-श्रान्त । (देह के खेद से खिन्न) तथा । तंता-तान्त-(मनके दुःख से दुःखित) और परितंता -परितान्त-(शरीर और मन दोनों के खेद से खिन्न) हुए २ । जामेव दिसं - जिस दिशा से अर्थात् जिधर से । पाउन्भूता-पाये थे । तामेव दिसं-उसी दिशा को अर्थात् उधर को ही। पडिगता-चले गये
मूलार्थ- तदनन्तर वह एकादि राष्ट्रकूट सोलह रोग तंकों से अत्यन्त दुःखी हुआ २ कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों को बुलाता है बुला कर उन से इस प्रकार कहता है कि - हे' देवानुप्रियो ! तुम जाओ,
और विजयवद्ध मान खेट के शृंगाटक [त्रिकोणमार्ग] त्रिक त्रिपथ (जहां तीन रास्ते मिलते हों ] चतुष्क चतुष्पथ [जहां पर चार मार्गे एकत्रित होते हों] चत्वर [ जहां पर चार से अधिक मार्गों का संगम हो ] महापथ-राज मार्ग और अन्य साधारण मार्गों पर जा कर बड़े ऊंचे स्वर से इस तरह घोषणा करो कि - हे महानुभावो ! एकादि राष्ट्र कूट के शरीर में श्वास, कास, ज्वर यावत् कुष्ठ ये १६ भयंकर रोग उत्पन्न हो गये हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायफ या ज्ञायक-पुत्र एवं चिकित्सक या चिकित्सकपुत्र उन सोलह रोगातकों में से
(१) जैनागमों में किसी को सम्बोधित करने के लिये प्रायः देवानुप्रिय शब्द का प्रयोग अधिक उपलब्ध होता है । इस का क्या कारण है ? इस प्रश्न के समाधान के लिये देवानुप्रिय शब्द के अर्थ पर विचार कर लेना आवश्यक है । प्राकृत-शब्द-महार्णव नाम के कोष में देवानुप्रिय शब्द के भद्र, महाशय, महानुभाव, सरलप्रकृति-इतने अर्थ लिखे हैं । अर्ध मागधी कोषकार देव के समान प्रिय, देववत् प्यारा ऐसा अर्थ करते हैं । अभिधानराजेन्द्र कोष में सरल स्वभावी यह अर्थ लिखा है, यही अर्थ टीकाकार आचार्य अभय देव सूरि ने भी अपनी टीकायों में अपनाया है । कल्पसूत्र के व्याख्याकार समय -सु दर जी गणी अपनी व्याख्या में लिखते हैं"-हे देवानुप्रिय ! सुभग ! अथवा देवानपि अनुरूपं प्रीणातीति देवानुप्रियः, तस्य सम्बोधनं हे देवानुप्रिय !-" गणी श्री जी के कहने का अभिप्राय यह है कि-देवानुप्रिय शब्द के दो अर्थ होते हैं - प्रथम सुभग । सुभग शब्द के अर्थ हैं - यशस्वी, तेजस्वी इत्यादि । दूसरा अर्थ है --जो देवताओं को भी अनुरूप – यथेच्छ प्रसन्न करने वाला हो उसे देवानुप्रिय कहते हैं । अर्थात् -वक्ता देवानुप्रिय शब्द के सम्बोधन से सम्बोधित व्यक्ति का उस में देवों को प्रसन्न करने की विशिष्ट योग्यता बता का सम्मान प्रकट करता है । सारांश यह है कि देवानुप्रिय एक सम्मान सूचक सम्बोधन है, इसी लिये ही सूत्रकार ने यत्र तत्र इसका प्रयोग किया है ।
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