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प्रथम प्रध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित । भगवन् ! आपकी आज्ञानुसार मैं महाराणी मृगादेवी के घर गया, वहां पीब और रुधिर का आहार करते हुए मैंने मृगापुत्र को देखा और देख कर मुझे यह विचार उत्पन्न हुआ कि यह बालक पूर्वकृत अत्यन्त कटुविपाक वाले पाप कर्मों के कारण नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा है,इत्यादि।
___भगवान् गौतम अनगार का अथ से इति पर्यन्त समस्त वृत्तान्त का भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन करना उन को साधुवृत्ति में भारण्ड पक्षी से भी विशेष सावधानता तथा धर्म के मूलस्रोत विनय की पराकाष्ठा का होना सूचित करता है । महापुरुषों का प्रत्येक आचरण संसार के सन्मुख एक उच्च आदर्श का स्थान रखता है। अतः पाठकों को महापुरुषों को जोवनो से इसी प्रकार को ही जीवनोपयोगी शिक्षारो को ग्रहण करना चाहिये तभी जीवन का कल्याण संभव हो सकता है।
"हट्ठ०तं चेव सव्वं जाव पूयं च" यहां पठित और "पुरा जाव विरहति" यहां पठित "जाव.याव" पद पूर्व के पाठों का बोधक है जिन की व्याख्या पीछे की जा चुकी है।
तदनन्तर गौतन स्वामी ने मृगापुत्र के विषय में जो कुछ पूछा और भगवान् ने उसके उत्तर में जो कुछ कहा, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं -
मूल-'से णं भंते ! पुरिसे पुन्वभवे के आसि १ किनामए वा किंगोत्तए वा कयरसि गामंसि वा नगरंसि वा किं वा दवा किंवा मोच्चा किंवा समायरित्ता केसि वा पुरा पोराणाणं जाव विहरति ?
पदार्थ-भंते !-भगवन् ! । से णं पुरिसे-वह पुरुष-मृगापुत्र । पुत्वभवे-पूर्वभव में । के आसि ?- कौन था ?। किंनामए वा-किस नाम वाला तथा। किंगोत्तए-किस गोत्र वाला था । कयरंसिं गामंसि वा-किस ग्राम अथवा । नगरंसि वा--नगर में रहता था १ । किं वा दच्चा-क्या दे कर। किं वा भोच्चा- क्या भोगकर। किं वा समायरित्ता-क्या आचरण कर । केसि वा पुराकिन पूर्व । पोराणाणं-प्राचीन कमां का फल भोगता हुआ । जाव-यावत् । विहरति-इस प्रकार निकृष्ट जीवन व्यतीत कर रहा है ?
मूलार्थ-भदन्त ! वह पुरुष [मृगापुत्र] पूर्वभव में क्या था ? किस नाम का था ? किस गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा किस नगर में रहता था ? तथा क्या दे कर, क्या भाग कर, किन २ कर्मों का आचरण कर और किन २ पुरातन कर्मों के फल को भोगता हुआ जीवन बिता रहा है।
टीका-प्रभो ! यह बालक पूर्व भव में कौन था ? किस नाम तथा गोत्र से प्रसिद्ध था ? एवं किस ग्राम या नगर में निवास करता था ? क्या दान देकर किन भोगों का उपभोग कर, क्या समाचरण कर, तथा कौन से पुरातन पापकर्मों के प्रभाव से वह इस प्रकार की नरकतुल्य यातनाओं का अनुभव कर रहा है ? यह था मृगापुत्र के सम्बन्ध में गौतमस्वामी का निवेदन, जिसे ऊपर के सूत्रगत शब्दों में सुचारु रूप से व्यक्त किया गया है।
टीकाकार महानुभाव ने नाम और गोत्र शब्द में अर्थगत भिन्नता को _नाम यादृच्छिकमभिधानं, गोत्रं तु यथार्थकुलम्- " इन पदों से अभिव्यक्त किया है । अर्थात् नाम यादृच्छिक होता है, इच्छानुसारी होता है । उस में अर्थ की प्रधानता नहीं भी होती, जैसे किसी का नाम
(१) छाया-स भदन्त ! पुरुषः पूर्वभवे क आसीत् ? किनामको वा किंगोत्रको वा कतरस्मिन् ग्रामे वा नगरे वा किं वा दत्त्वा किं वा भुक्त्वा किं वा समाचर्य केषां वा पुरा पुराणानां यावत् विहरति ?
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