________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
६४]
श्री विपाक सूत्र
[ प्रथम अध्याय
कुपित होकर त्वच रुधिर मांस और शरीरस्थ जल को दूषित कर के कुष्ठ रोग को उत्पन्न करते हैं । तात्पर्य यह है कि वात पित्त, कफ, रस रुधिर मांस तथा लसीका इन सातों के दूषित होने अर्थात् बिगडने से कुष्ट रोग उत्पन्न होता । इन में पहले के तीन -- वात पित्त और कफ तो दोष के नाम से प्र.सद्ध हैं और बाकी के चारों रस रुधिर, मांस और लसीका - की दूष्य संज्ञा है। इस प्रकार संक्षेप से ऊपर वणन किये गये १६ रोगों ने एकााद नाम के राष्ट्रकूट पर एक बार ही अाक्रमण कर दिया अर्थात् ये १६ रोग एक साथ ही उसके शरीर में प्रादुभू त हो गये । वास्तव में देखा जाय तो अत्य ग्रपापों का ऐसा ही परिणाम हो सकता है। अस्तु ।
___अब पाठक एका द राष्ट्रकूट की अग्रिम जीवनी का वर्णन सुनें जो कि सूत्रकार के शब्दों में इस तरह वर्णित है___ मूल-तते णं से एक्काई रहकूड़े सोलसहि रोगातकेहिं अभिभूते समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेड़े सिघाडगतिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया २ सद्दे णं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह-एवं खलु देवाणप्पिया ! एक्काइ० सरीरगंसि सोलस रोगातका पाउब्भूता तंजहा-मासे १ कासे २ जरे
(१) चर्म (२) किटिम (३) वैपादिक (४) अलसक (५) दद्र - मंडल (६) चर्मदल (७) पामा (८) कच्छु (९) विस्फोटक (१०) शतारु (११) विचर्चिक, ये ग्यारह क्षद्र कुष्ठ के नाम से विख्यात हैं । इनके पृथक २ लक्षण, और चिकित्सा सम्बन्धी सम्पूर्ण वर्णन चरक, सुश्रुत और वागभट्ट से लेकर बंगसेन तक के समस्त आयुर्वेदीय ग्रन्थों में पर्याप्त है अत: वहीं से देखा जा सकता है ।
(१) छाया-ततः स एकादी राष्ट्रकूट: पोड़शभी रोगातंकरभिभूतः सन् कौटुम्बिक - पुरुषान् शब्दाययति, शब्दाययित्वा एवमवदत् --- गच्छत यूयं देवानु प्रिया: ! विजयवर्द्धमाने खेटे शृगाटकत्रिक-चतुष्क चत्वर --- महापथपथेषु महता शब्देन उद घोषयन्तः २ एवं वदत एव खलु देवानुप्रियाः! एकादि० शरीरे षोडश रोगातंकाः प्रादुभू ता:, तद्यथा-श्वास: १ कासः २ ज्वर: ३ यावत् कुष्ठः । तद य इच्छति देवानुप्रिया: ! वैद्यो वा वैद्यपुत्रो वा ज्ञायको वा ज्ञायक-पुत्रो वा चिकित्सकः चिकित्सकपुत्रो वा, एकादे राष्ट्रकूस्य तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितुम् तस्य एकादी राष्ट्रकूटो विपुलमर्थ-सम्प्रदानं करोति द्विरपि त्रिरपि उद्घोषयत, उद्घोष्य एतामाज्ञप्ति प्रत्यर्पयत । ततस्ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रत्यर्पयन्ति,ततो विजयवर्द्धमाने खेटे इमामेतद्रूपामुद्घोषणां श्रुत्वा निशम्य ववो वैद्याश्च शस्त्रकोषहस्तगता: स्वेभ्यः स्वेभ्यो गृहेभ्यः प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य विजयवर्द्धमानस्य खेटस्य मध्यमध्येन यत्रैव एकादिराष्ट्रकूटस्य गृहं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागम्य एकादिशरीर परामृशन्ति, परामृश्य तेषां रोगाणां निदानं पृच्छन्ति पृष्ठा एकादिराष्ट्रकूटस्य बहुभिरभ्यंगै रुद्रतनाभिश्च स्नेहपानश्च वमनैश्च विरेचनाभिश्च सेचनाभिश्च, अवदाहनाभिश्च अवानानैश्च, अनुवासनाभिश्च बस्तिकमभिश्च निम्हैश्च शिराबेधेश्च तक्षणश्च प्रतक्षणैश्च शिरोवस्तिभिश्च तर्पणश्च पुटपाकैश्च छल्लिभिश्च, मूलैश्च कन्दैश्च पत्रैश्च पुष्पश्च फलैश्च, बीजैश्च शिलिकाभिश्च, गुटिकाभिश्च औषधैश्च भैषज्यश्च इच्छन्ति तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितु नो चैव संशक्नुवन्ति उपशमयितु । ततस्ते बहवो वैद्या वैद्यपुत्राश्च ६ यदा नो संशक्नुवन्ति तेषां षोड़शानां रोगातंकानामेकमपि रोगातंकमुपशमयितु, तदा श्रान्तास्तान्ताः परितान्ताः यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतास्तामेवदिशं प्रतिगताः ।
For Private And Personal