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श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
__ मृगापुत्र की यह दशा कितनी बीभत्स एवं करुणा-जनक है यह कहते नहीं बनता। नेत्रादि इन्द्रियों का अभाव तथा हस्तपादादि अंगोपांग से रहित केवल मांस पिंड के रूप में अवस्थित होने पर भी उसकी ब्राहार सम्बन्धी चेष्टा को देखते हुए तो जीवोपार्जित अशुभकर्मों के विपाकोदय की भयंकरता अथवा कम-गति की गहनता के लिये अवाक रह जाने के सिवा और कोई गति नहीं है अस्तु ।
परम-दयनीय दशा में पड़े हुए उस मृगापुत्र को देखकर करुणालय भगवान् गौतम स्वामी के उदार हृदय में कैसे विचार उत्पन्न हुए, उस का वर्णन सूत्रकार ने "तते णं भगवतो गोतमस्स तं मियापुत्वं......पोराणाणं जाव विहरति' इन पदों द्वारा किया है।
मृगापुत्र की नितान्त शोचनीय अवस्था को देख कर भगवान् गौतम अनगार अत्यन्त व्यथित हुए और सोचने लगे कि इस बालक ने पूर्व जन्मों में किन्हीं बड़े ही भयकर कर्मों का बन्ध किया है, जिन का विच्छेद या निर्जरा किसी धार्मिक क्रियानुष्ठान से भी इसके द्वारा नहीं की जा सको । उन्हीं अशुभ पाप कर्मों का फल प्राप्त करता हुआ यह बलक ऐसा जघन्यतम नारकी जीवन व्यतीत कर रहा है।
भगवान् गौतम के ये विचार उन की मनोगत करुणावृत्ति के संसूचक हैं । उन से यह भली भांति सूचित हो जाता है कि उनके करुणापूरित हृदय में उस बालक के प्रति कितना सद्भावपूर्ण स्थान है उन का हृदय मृगापुत्र की दशा को देखकर विहवल हो उठा, करुणा के प्रवाह से प्रवाहित हो उठा। इसी लिये वे कहते हैं कि मैंने नरक और नारकी जीवों का तो अवलोकन नहीं किया किन्तु यह बालक साक्षात् नरक प्रतिरूप वेदना का अनभव करता हा देखा जा रहा है। तात्पर्य यह है कि इसकी वतमान शाचनीय दशा नरक की विपत्तियों से किसी प्रकार कम प्रतीत नहीं होती।
इस प्रकार विचार करते हुए भगवान् गौतम महाराणी से पूछ कर अर्थात् अच्छा, देवि ! अब मैं जा रहा हूँ, ऐसा उसे सूचित कर उसके घर से चल पड़े और नगर के मध्यमार्ग से होते हुए भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित हुए । वहां उन्हों ने दाहिनी तर्फ से तीन बार प्रदक्षिणा कर विधिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार किया, उस के अनन्तर उन से वे इस प्रकार निवेदन करने लगेजा सकेगा ? व्यवहार भी इस बात की पुष्टि में कोई साक्षी नहीं देता । अर्थात् एक बार भक्षित एव रुधिरादि रूप में परिणत शरीरस्थ पदार्थ का पुनः भक्षण व्यवहार विरुद्ध पड़ता है । परन्तु सूत्रकार के "तं पि य णं पूर्य च शोणियं च आहारेति' ये शब्द स्पष्टतया यह कह रहे हैं कि मृगापुत्र ने उस रुधिर तथा पीब का आहार किया। तब सूत्रार्थ के संगत न रहने पर "सिद्धस्य गतिश्चिन्तनीया" के सिद्धान्त से "वमइ” इस पद का 'अध्याहार करना ही पड़ेगा इस पद के अध्याहार से सूत्रार्थ को संगति नितरां सुन्दर रहती है और वह व्यवहार विरुद्ध भी नहीं पड़ती। आप ने देखा होगा कि कुत्ता वमन (उल्टी) करता है फिर उसे चाट लेता है, खा जाता है। ऐसी ही स्थिति मृगापुत्र की थी उस ने भी पाकादि का वमन किया और फिर वह उसे चाटने लग पड़ा । इस अर्थ-विचारणा में कोई विप्रतिपत्ति नहीं प्रतीत होती । अथवा यह भी हो सकता है कि - सूत्र संकलन करते समय प्रस्तुत प्रकरण में "वमइ” यह पाठ छूट गया हो । रहस्यन्तु केवलिगम्यम् ।
... + संदिग्ध अर्थ के निर्णय में अध्याहार का भी महत्वपूर्ण स्थान रहता है, देखिए अपकर्षेणानुसत्या वा, पर्यायेणाथवा पुनः । अभ्याहारापवादाभ्यां, क्रियते त्वर्थनिर्णयः । अर्थात् अपकर्ष (आगे का सम्बन्ध), अनुवृत्ति (पीछे का सम्बन्ध), पर्याय (क्रमशः होना अथवा विकल्प से होना) अध्याहार (असंगति दूर करने लिये संगत को अपनी ओर से जोड़ना, अपवाद ( अनेक को प्राप्ति में बलवत्प्राप्ति का नियम ) इन सब के द्वारा संदिग्ध अर्थ का निर्णय होता है।
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