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प्रथम अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[३७
जन्मान्ध तो जन्मकाल से किसी निमित्त द्वारा च न के उपबात हो जाने पर भी कहा जा सकता है अर्थात् ऐसे व्यक्ति को भी जन्मांध कह सकते हैं जिस के नेत्र जन्मकाल से नष्ट हो गये तों, परन्तु जातान्धकरूप उसे कहते हैं कि निसके जन्मकाल से ही नेत्रों का असद्भाव हो -नेत्र न हों। यही इन पदों में अर्थ विभेद है जिसके कारण सूत्रकार ने इन दोनों का पृथक् २ ग्रहण किया है।
तदनन्तर अज्ञानान्धकाररूप पातक समूह को दूर करने में दिवाकर (सूर्य) के समान श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को विधि पूर्वक वन्दना नमस्कार कर भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे सविनय निवेदन किया कि भगवन् ! यदि आप मुझे आज्ञा दें तो मैं उस मृगापुत्र नामक बालक को देखना चाहता हूँ ।
"तुब्भेहिं अब्भणुराणाते" इस पद में गौतम स्वामी की विनीतता की प्रत्यक्ष झलक है जो कि शिष्योचित सद्गुणों के भव्यप्रसाद को मूल भित्ति है । हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम को सुख हो, यह था प्रभु महावीर की तर्फ से दिया गया उत्तर । इस उत्तर में भगवान् ने गौतम स्वामी को जिगमिषा (जाने की इच्छा) को किसी भी प्रकार का व्याघात न पहुँचाते हुए सारा उत्तरदायित्व उन के ही ऊपर डाल दिया है, और अपनी स्वतन्त्रता को भी सर्वथा सुरक्षित रक्खा है।
तदनन्तर जन्मान्ध और हुण्डरूप मृगापुत्र को देखने की इच्छा से सानन्द अाशा प्राप्तकर शान्त तथा हषित अन्तःकरण से श्री गौतम अनगार भगवान् महावीर स्वामी के पास से अर्थात् चन्दन पादपोद्यान से निकल कर ईर्यासमिति का पालन करते हुए मृगाग्राम नामक नगर की ओर चल पड़े।
यहां पर गौतम स्वामी के गमन के सम्बन्ध में सूत्रकार ने 'अतुरियं जाव सोहेमाणे - अत्वरितं यावत् शोधमानः'' यह उल्लेख किया है । इस का तात्पर्य यह है कि मृगापुत्र को देखने को उत्कण्ठा होने पर भी उन की मानसिक वृत्ति अथच चेष्टा और ईर्यासमिति आदि साधुजनोचित आचार में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आने पाया। वे बड़ी मन्दगति से चल रहे हैं, इस में कारण यह है कि उन का मन स्थिर है-मानसिक वृत्ति में किसी प्रकार का क्षोभ नहीं है। वे अंसभ्रान्त रूप से जा रहे हैं अर्थात् उन की गमन क्रिया में किसी प्रकार की व्यग्रता दिखाई नहीं देती, क्योंकि उन में कायिक चपलता का अभाव है । इसी लिये वे युगप्रमाण भूत भूभाग के मल। ईर्यासमिति पूर्वक (सम्यकतया अवलोकन करते हुए) गमन करते हैं । यह सब अर्थ "जाव'-यावत्" शब्द से संगृहीत हुआ है "सोहेमाणे-शोधमानः" का अर्थ है - युग--(साढ़े तीन हाथ) प्रमाण भूमि को देख कर विवेकपूर्वक चलना । इस में सन्देह नहीं कि महापुरुषों का गमन भी सामान्य पुरुषों के गमन से विलक्षण अथच आदर्श रूप होता है। वे इतनी सावधानी से चलते हैं कि मार्ग में पड़े हुए किसी क्षद्रजीव को हानि पहुँचने नहीं पाती, फिर भी वे स्थान पर आकर उसकी आलोचना करते हैं यह उनकी महानता है, एवं शिप्यसमुदाय को अपने कर्तव्यपालन की ओर आदर्श प्रेरणा है।
___ तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी मृगाग्राम नगर के मध्य में से होते हुए मृगादेवी के घर में पहुंचे तथा उन को आते देख मृगादेवी ने बड़ी प्रसन्नता में उन का विधिपूर्वक स्वागत किया और पधारने का प्रयोजन पूछा।
(१) यावत्-करणादिदं दृश्यम् - अचवलमसंभंते जुगंतर-पलोयणाए दिट्ठीए पुरश्रो रिय-तत्राचपलं कायचापल्यभावात्, क्रियाविशेषणे चैते तथा असंभ्रान्तो भ्रम-रहितः, युगं यूपस्तत्प्रमाणो भूभागोऽपि युगं तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया दृष्ट्या-चक्षषा “रियं' इति ई गमनं तद्विषयो मार्गोऽपीर्याऽतस्ताम् ।
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