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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित।
वहां जाकर उस ने पहले अपने वस्त्र बदले, फिर काष्ठश कटी-लकड़ी की एक छोटी सी गाड़ी ली और उस में विपुल -अधिक प्रमाण में-प्रशन (रोटी. दाल आदि), पान (पानी), खादिम (मिठाई तथा दाख, पिस्ता आदि) और स्वादिम (पान-सुपारी आदि) रूप चतुविध आहार को ला कर भरा, तदनन्तर उस आहार से परिपूर्ण शकटी को स्वयं बवती हुई वह गौतम स्वामी के पास आई और उन से नम्रता पूर्वक इस प्रकार बोली – भगवन् ! पधारिये, मेरे साथ आइए, मैं आप को उसे (मृगापुत्र को) दिखलाती हूँ । महाराणी मृगादेवी को विनोतता पूर्ण वचनावलो को सुनकर भगवान् गौतम स्वामी भी महाराणी मृगादेवी के पीछे २ चलने लगे । काष्ठशकटो का अनुकर्षण करती हुई मृगादेवी भूमिगृह के पास अई वहां आकर उसने स्वास्थ्यरक्षार्थ चतुष्पुट-चार पुट वाले (चार तहों वाले) वस्त्र से मुख को बांधा अर्थात् नाक को बान्धा और भगवान् गौतम स्वामी से भी स्वास्थ्य की दृष्टि से मुख के वस्त्र द्वारा मुखनाक बान्ध लेने की प्रार्थना की, तदनुसार श्री गोतम स्वामी ने भी मुख के वस्त्र से अपने नाक को आच्छादित कर लिया ।
प्रश्न-जब भगवान् गौतम स्वामी ने मुखवस्त्रिका से अपना मुख बान्ध ही रखा था, फिर उन्हें मुख बान्धने के लिये महाराणी मृगादेवी के कहने का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-जैसे हम जानते हैं कि भगवान् गौतम ने मुख-वस्त्रिका से मुख वान्ध रखा था वैसे महाराणी मृगादेवी भी जानती थी, इस में सन्देह वाली कोई बात नहीं है, तथापि मृगादेवी ने जो पुनः मुख बान्धने की भगवान से अभ्यर्थना की है, उस अभ्यर्थना के शब्दों को न पकड़ कर उस के हार्द को जानने का यत्न कीजिए।
सर्व प्रथम न्यायदर्शन की लक्षणा जान लेनी आवश्यक है । लक्षणा का अर्थ है-'तात्पर्य (वक्ता के अभिप्राय ) की उपपत्ति-सिद्धि न होने से शक्यार्थ (शक्ति-संकेत द्वारा बोधित अर्थ ) का लक्ष्यार्थ (लक्षण द्वारा बोधित अर्थ) के साथ जो सम्बन्ध है। स्पष्टता के लिये उदाहरण लीजिए
"गङ्गायां घोषः" इस वाक्य में वक्ता का अभिप्राय है कि गंगा के तीर पर घोष (आभीरों की. पल्ली ) है, परन्तु यह अभिप्राय गंगा के शक्य रूप अर्थ द्वारा उपपन्न नहीं होता, क्योंकि गंगा का शक्यार्थ है - जल-प्रवाह-विशेष । उस में घोष का होना असंभव है, इस लिये यहां गंगा पद से उस का जल-प्रवाह रूप शक्यार्थ न लेकर उस के सामीप्य सम्बन्ध द्वारा लक्ष्यार्थ - तीर को ग्रहण किया जाता है।
इसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में जो "मुह गोत्तियार मुहबंधह" यह पाठ आता है। इस में मुख-शब्द लक्षणा द्वारा नासिका का ग्राहक है-चोधक है । क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग में महाराणी मृगादेवी का अभिप्राय गौतम स्वामी को दुर्गन्ध से बचाने का है । और यह अभिप्राय मुख के शक्यरूप अर्थ का ग्रहण करने से उपपन्न नहीं होता है । क्योंकि गन्ध का ग्राहक प्राण (नाक) है न कि मुख, इस लिये यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने से मुख शब्द द्वारा इस के शक्यार्य को न लेकर सामीप्यरूप सम्बन्ध से लक्ष्यार्थ-नाक ही का ग्रहण करना चाहिये । जो कि महाराणी मृगादेवी को अभिमत है।
हमारा लौकिक व्यवहार भी ऊपर के विवेचन का समर्थक है । देखिए-कोई मित्रमण्डल गोष्ठी में संलग्न है, सामने से भीषण दुर्गन्ध से अभिव्याप्त एक कुष्ठी आ रहा है । मण्डल का नायक उसे देखते ही बोल उठता है, मित्रो ! मुख ढक लो । नायक के इतना कहने मात्र से साथी अपना २ नाक ढक लेते हैं। यह ठीक है नाक का मुख के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होने से मुख का ढका जाना अस्वाभाविक
(१) लक्षणा शक्यसम्बन्धस्तात्पर्यानुपपत्तितः (न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, कारिका-८२)
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