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प्रथम प्रध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित।
का प्रयोग करते हैं तब वह निरबद्य भाषा कहलाती है । भाषा का द्वैविध्य मुख को श्रावृत करने और खुले रखने से होता है ।
खुले मुख से बोली जाने वाली भाषा वायुकाया के जीवों की नाशिका होने से सावद्य और वस्त्रादि से मुख को ढक कर बोले जाने वाली भाषा जीवों की संरक्षिका होने से निरवद्य भाषा कहलाती है ।
इस प्रकार के वर्णन से स्पष्ट है कि मुख की यतना किये बिना-मुख को वस्त्रादि से श्रावृत किये बिना भाषा का प्रयोग करना सावध कर्म होता है । सावद्य प्रवृत्तियों से अलग रहना ही साधुजीवन का महान् आदर्श रहा हुआ है, यही कारण है कि सावद्य प्रवृत्ति से बचने के लिये साधु मुख पर मुखवस्त्रिका का प्रयोग करते आ रहे हैं।
अब जरा मुल प्रसंग पर विचार कीजिए -जब महाराणी मृगादेवी अपने ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र को दिखाने के लिये भौंरे में जाती है, तब वहां की भीषण एवं असह्य दुर्गन्ध से स्वास्थ्य दूषित न होने पावे, इस विचार से अपना नाक बान्धती हुई, भौरे के दुर्गन्धमय वायुमण्डल से अपरिचित भगवान् गौतम से भी नाक बान्ध लेने की अभ्यर्थना करती है । तब भगवान् गौतम ने भौंरे का स्वस्थ्यनाशक दुर्गन्ध-पूर्ण वायुमण्डल जान कर और राणी की प्रेरण पा कर पसीना आदि पोंछने के उपवस्त्र से अपने नाक को बान्ध लिया। यदि यहां बोलने का प्रसंग होता और सावध प्रवृत्ति से बचाने के लिये भगवान् गौतम को मुख पर मुखवस्त्रिका लगाने की प्रेरणा की जाती तो यह शंका अवश्य मान्य एवं विचारणीय थी परन्तु यहां तो केवल दुर्गन्ध से बचाव करने की बात है । बोलने का यहां कोई प्रसंग नहीं ।
__"बन्धेह'' पद से जो “–संयोग वियोग मूलक होता है इसी प्रकार मुख का बन्धन भी अपने पूर्वरूप खुले रहने का प्रतीक है-'यह शंका होती है उस का कारण इतना ही है कि शंकाशील व्यक्ति मुख का शक्यरूप अर्थ ग्रहण किये हुए है जब कि यहां मुख शब्द अपने लक्ष्यार्थ का बोधक है । मुख का लक्ष्यार्थ है नाक, नाक का बान्धना शास्त्रसम्मत एवं प्रकरणानुसारी है। जिस के विषय में पहले काफी विचार किया जा चुका है।
__मुख-वस्त्रिका मुख पर लगाई जाती थी इस की पुष्टि जैनदर्शन के अतिरिक्त वैदिक दर्शन में भी मिलती है। शिवपुराण में लिखा है - हस्ते पात्रं दधानाश्च तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः । मलिनान्येव वस्त्राणि, धारयन्तोऽल्पभाषिणः ॥
[अध्याय २१ श्लोक १५] अस्तु अब विस्तार भय से इस पर अधिक विवेचन न करते हुए प्रकृत विषय पर आते हैं
तदनन्तर जब महाराणी मृगादेवी ने मुख को पीछे की ओर फेर कर भूमिगृह के द्वार का उद्घाटन किया, तब वहां से दुर्गन्ध निकली, वह दुर्गन्ध मरे हुए सर्मादि जीवों की दुर्गन्ध से भी भीषण होने के कारण अधिक अनिष्ट -कारक थी। यहां पर प्रस्तुतसूत्र के - "अहिमडे इ वा जाव ततो वि' पाठ में उल्लिखित हुए “जाव-यावत्" पद से निम्नोक्त पदों का ग्रहण करना अभीष्ट है
गोमडे इ'जार मयकुहिय-विण?-किमिण-वावरण-दुरभिगंधे किमिजालाउले संसत्ते असुइ
(१) मृत गाय के यावत् ( अर्थात् - कुत्ता, गिरगिट, मार्जार, मनुष्य, महिष, मूषक, घोड़ा, हस्ती, सिह व्याघ्र, वृक (भेडिया), और) चीता के कुथित -- सड़े हुए, अतएव विनष्ट -शोथ आदि विकार से युक्त, कई प्रकार के कृमियों से युक्त, गीदड़ आदि द्वारा खाए जाने के कारण विरूपता को प्राप्त,
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