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×४ ]
श्री विपाक सूत्र -
[ प्रथम अध्याय
नहीं है, परन्तु कहने वाले का अभिप्राय नाक के ढक लेने से होता है, क्योंकि नाक ही गन्ध का ग्रहण करने वाला है ।
ग्रहण न करके इसके शक्यार्थ का
ग्रहण किया
प्रश्न – यदि मुख पद के लक्ष्यार्थ का जाए तो क्या बाधा है ?
उत्तर - प्रस्तुत प्रकरण में दुर्गन्ध से बचाव को बात चल रही है । गन्ध का ग्राहक प्राण है । बाण को ढके या बान्धे बिना दुर्गन्ध से बचा नहीं जा सकता । परन्तु महाराणी मृगादेवी नाक को बन्धने की बात न कह कर मुखबान्धने के लिये कह रही हैं । मुख गन्ध का ग्राहक न होने से महाराणी का यह कथन व्यवहार से विरुद्ध पड़ता है, अतः यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने के कारण लज्ञणा द्वारा मुबाद से नाक का ग्रहण करना ही होगा । दूसरी बात यह है कि यदि यहां मुख का शक्यार्थ ही अपेक्षित होता तो ""मुहपोत्तियाए मुहं बन्धेह" इस पाठ की श्रावश्यकता ही नहीं रहती, क्यों कि मुख को आवृत करने के लिये किसी बाह्य आवरण की आवश्यकता नहीं है. वहां तो ओंठ ही आवरण का काम दे जाते हैं । ऐसी एक नहीं अनेकों बाधायों के कारण यहां मुखपद से नाक का ग्रहण करना ही शास्त्रसम्मत है ।
प्रश्न- "मुहपोत्तियाए मुह ं बच्चेह" इस पाठ में जो "वन्धे" यह पद है, इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान गौतम के मुख पर मुख - वस्त्रिका नहीं थीं परन्तु उन्होंने महाराणी मृगादेवी के कहने पर बांधी थी । पहले यह कहा जा चुका है कि भगवान् गौतम के मुखवस्त्रिका बन्धी हुई थी, यह परस्पर में विरोध की बात क्यों ?
उतर - सबसे पहिले जैन शास्त्रों में मुख- वस्त्रिका की मान्यता किस आधार पर है इस पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । भगवती सूत्र में लिखा है -
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पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी अपनी शिष्यमण्डली सहित राजगृह नगर में विराजमान थे । भगवान् के प्रधान शिष्य अनगार गौतम भगवान् से एक बार भगवान् के चरणों में नमस्कार करने के अनन्तर हाथ जोड़कर सविनय निवेदन करने लगे -
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भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज सावद्य (पाप युक्त) भाषा बोलते हैं या निरवद्य (पाप रहित ) ? भगवान् बोले गौतम ! देवेन्द्र देवराज सावद्य और निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा बोलते गौतन - भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सावत्र ओर निरवद्य दोनों प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं, यह कहने का क्या अभिप्राय है ?
भगवान् गौतम ! देवेन्द्र देवराज जब सूक्ष्मकाय वस्त्र अथवा हस्तादि से मुख को बिना ढक कर बोलते हैं तो वह उन की सावध भाषा होती है, परन्तु जब वे वस्त्रादि से मुख को ढक कर भाषा
(१) यहां पर मुखपोतिका - मुखवस्त्रिका आदि पोंछने का काम लिया जाता है। आठ तहों उस का इतना बड़ा आकार नहीं होता कि दुर्गन्ध के पीछे ले जाकर गांठें देकर बांध दिया जाए। "बन्धे" पद का प्रयोग करते हैं । "बंधेह" का अर्थ होता है - बान्ध लें ।
(२) भगवती - सूत्र शतक १६ उद्ददेशक २ सूत्र ५६८ ।
शब्द एक वस्त्रखण्ड का बोधक है, जिस से धूलि पसीना वाली मुख वस्त्रिका का यहां पर ग्रहण नहीं, क्योंकि दुष्परिणाम से पूर्णरूपेण बचने के लिये उसे ग्रीवा के सूत्रकार “मुहपोत्तियाए मुह बंधेह" इस पाठ में
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