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२४।
श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
अर्थात् हे भद्र !। श्रहासुहं-जैसे तुम को सुख हो। तते णं-तदनन्तर । से भगवं गोतमेवह भगवान् गौतम, जो कि । समणेणं भगवया-श्रमण भगवान् के द्वारा। अब्भणुराणाते समाणेअभ्यनुज्ञात-अाज्ञा प्रप्त कर चुके हैं, और । हतुढे-अति प्रसन्न हैं । समणस्त -श्रमण । भगवरोभगवान् के । अंतितातो-पास से। पडिनिक वमइ-चल दिये । पडिनिक्वमिना - चल कर । अतुरियं जाव सोहेमाणे - अशीघ्रता से यावत् ईर्या-समिति पूर्वक गमन करते हुए । जेणेव-जहां । मियग्गामे गरे-मृगाग्राम नगर था। तेणेव-उसी स्थान पर। उवागच्छति-आते हैं । उवागच्छित्ता-श्रा कर । मझमज्झण-नगर के मध्यमार्ग से । भियग्गामं णगरं-मृगाग्राम नगर में । अणुपविस्सइ-प्रवेश करते हैं। अणुप्पविस्सित्ता-प्रवेश करके । जेणेत्र -- जहां पर। मियादेवीएमृगादेवी का । गिह-घर था। तेणेव-उसी स्थान पर। उवागच्छति-पाते हैं। तते णं - तदनन्तर । सा मियादेवी-उस मृगादेवी ने । एज्जमाणं-आते हुए। भगां गोतमं-भगवान् गौतम स्वामी को । पासति-देखा, और वह उन्हें । पासित्ता-देख कर । हट्ठ०-प्रसन्न हुई। जाव - यावत् एवं वयासी- इस प्रकार कहने लगी । देवाणुप्पिया ! - हे देवान प्रिय ! अर्थात् हे भगवन् !। किमागमणपयोयणं?-आप के पधारने क्या प्रयोजन है ? । संदिसतु- वह बतलावें। तते णं-उस के अनन्तर । भगनं गोतमे -भगवान् गौतम । मियं देविं-मृगादेवी को । एनं वयासो- इस प्रकार कहने लगे। देवाणुप्पिए ! हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे भद्रे ! . अहं-मैं । तव-तेरे । पुतं-पुत्र को । पासित्तुदेखने के लिये । हव्वमागते--शीघ्र अर्थात् अन्य किसी स्थान पार न जाकर सीधा तुम्हारे घर, आया हूँ। तते णं- तदनन्तर । सा मियादेवी-वह मृगादेवी । मियापुत्तस्स दारगस्स-मृगापुत्र बालक के । अणुमग्गजायए-पश्चात् उत्पन्न हुए २॥ चत्तारी पुत्ते-चार पत्रों को । सव्वालंकारविभूसिर-सर्व अलंकारों से विभूषित । करेति-करती है। करेत्ता - कर के। भगवतो गोतमस्स-भगवान् गौतम स्वामी के । पाएसु चरणों में । पाति-डालती है । पाडेता-नमस्कार कराने के पश्चात् , वह । एक वयासी-इस प्रकार बोली। भंते! हे भगवन् ! एएणं-इन । मम पुरी - मेरे पुत्रों को । पासह - देख लें । तते णं - तदनन्तर । भगां गोतमे- भगवान् गौतम ने । मियं देवि- मृगादेवी को । एक वयासी -इस प्रकार कहा । देवाणुप्पिए !-हे देवानुप्रिये ! । अहं - मैं । एए तत्र पुन-तेरे इन पुत्रों को । पासित्तु देखने के लिये । नो हञ्चमागए - शीघ्र नहीं आया हूँ किन्तु । तत्थ णं - इन में । जे से तव जेठे पुगे- तुम्हारा वह ज्येष्ठ पुत्र जो कि । जातिअंधे- जन्म से अन्धा। जाव अंधारूवे-यावत् अंधकरूप है, और जो । मियापुत्ते दारए -मृगापुत्र के नाम का बालक है, तथा । जगणं तुमं-जिस को त् । रहस्सियसि भूमिघरंसि - एकान्त के भूमिगृह (भौंरे) में । रहस्सियएणं भत्तपाणेणं-गुप्तरूप से खान पान आदि के द्वारा पडिजागरमाणी विहरसि -पालन पोषण में सावधान रह रही है । तं णं-उस को । अहं-मैं । पासित्तु - देखने के लिये । हव्वमागते-शीघ्र आया हूँ । तते णं- तदनन्तर । सा मियादेवो-वह मृगादेवी । भगनं गोतम-भगवान् गौतम स्वामी के प्रति । एवं वयासो-इस प्रकार कहने लगी।' गातमा ! --
(१) “संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! -- " तथा " -एर- भंते ! मम पुतं । इत्यादि पाठों में मृगादेवी ने भगवान् गौतम को देवानप्रिय या भदन्त के सम्बोधन से सम्बोधित किया है, परन्तु इस पाठ में उस ने “गोतमा !” इस सम्बोधन से उन्हें पुकारा है, ऐसा क्यों ?. गुरुत्रों को उन्हीं के नाम से पुकारना कहां की शिष्टता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यहां मृगादेवी को शिष्टता में सन्देह वाली कोई बात प्रतीत नहीं
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