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प्रथम अध्याय ]
हिन्दो भाषा टीका सहित ।
[ २३
पदार्थ-तेणं कालेणं- उस काल में। तेणं समएणं - उस समय में । मियग्गामे --- मगाग्राम । णाम-नामक । णगरे-नगर । होत्था-था। वरण प्रो-वकि-वर्णन प्रकरण पूर्ववत् । तस्स - उस । मिपग्गामस्त-मृगाग्राम नामक | जगरस्स-नगर के । बहिया-वाहिर । उत्तरपुरथिमे-उत्तरपूर्व ! दिलिभार-दिग्भाग अर्थात् ईशान कोण में । चंदणपायवे-चन्दनपादप । णानं नामक । उज्जाणे-उद्यान । होत्था-था । सबोउय०- जो कि सर्व ऋतु में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त था । वराणो-वर्णक-वर्णन प्रकरण पूर्ववत् । तथ णं-उस उद्यान में । सुहम्मस्स जक्खस्ससुधर्मा नामक यक्ष का । जक्वाययणे-यक्षायतन । होत्था- था। चिरातीए-जो कि पुराना था शेषवर्णन ---जहा पुराणभई-पूर्णभद्रकी भांति समझ लेना । तत्थ णं- उस । मियागामे - मृगाग्राम णगरे - नगर में । विजए णाम - विजय नामक । खत्तिए-क्षत्रिय । राया- राजा । परिवसतिरहता था । वाण प्रो - वर्णन प्रकरण पूर्ववत् । तस्स -उप । विजयम्स -विजय नामक । खत्तियस्म-क्षत्रिय की । मिया णामं- मृगा नामक । देवी-देवी । होथा-थी अहीण:-जिसकी पांचों इन्द्रियें सम्पूर्ण अथच निर्दोष थीं। वरणओ- वर्णनप्रकरण पूर्ववत् । तस्स- उस । विजयस्म- विजय । खत्तियस्य-क्षत्रिय का । पुणे-पत्र । मियादेवीए- मृगादेवी का । अत्तए -अात्मज । मियापुत्री- मृगापुत्र । णाम- नामक । दारए - बालक । होत्था- था, जो कि । जाति अन्धे-जन्म से अन्धा । जातिमूए -जन्म काल से मूक-गूगा । जाति-वहिरे-जन्म से वहरा । जातिपंगुले - जन्म से पंगुल-लूला लंगड़ा । हुण्डे य-हुंड-जिस के शारीरिक अवयव अपने २ प्रमाण में पूरे नहीं हैं, तथा–बायो-उसका शरीर वायुपधान था। तस्स दारगस्त - उस बालक के । हत्था वा - हाथ । पाया वा -पांव । कराणा वा - कान । अच्छी वा - अांखे । नासा वा-और नाक । जत्थि णं - नहीं थी। केवल - केवल । से-- उसके । तेगि अंगोवंगाणं- उन अंगोपांगो की । श्रागिई - आकृति । श्रागितिमिने-श्राकार मात्र थी, अर्थात् उचित स्वरूप वाली नहीं थी। तते णं - तदनन्तर । सा -- वह । मियादेवी-मृगादेवी । तं--उस । मियावृत्तं - मृगापत्र । दारंग- बालक की । रहम्सियसि - गुप्त । भूमिवरंशि-भूमिगृह-भौंरे में रहस्सित्तेणं-गुप्तरूप से । भत्तपाणएणंश्राहार पानी के द्वारा । एडिजागरमाणी- सेवा करती हुई। विहरति विहरण कर रही थी।
मूलार्थ- उस काल तथा उस समय में मृगाग्राम नामक एक सुप्रसिद्ध नगर था। उस मृगाग्राम नामक नगर के वाहिर उत्तर पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में सम्पूर्ण ऋतुओं में होने वाले फल पुष्पादि से युक्त चन्द न-पादप नामक एक रमणीय उद्यान था। उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था। जिसका वर्णन पूर्णभद्र के समान जानना । उस मृगाग्राम नामक नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा निवास करता था। उस विजय नामक क्षत्रिय राजा को मृगा नाम को राणी थी जो के सर्वांगसुन्दरी, रूप-लावण्य से युक्त थी। उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का एक बालक था। जो के जन्मकाल से ही अन्धा, गूगा, बहरा, पंगु, हुण्ड और वातरोगी (वात रोग से पीडित) था। उसके हस्त, पाद, कान, नेत्र और नासिका भी नहीं थी ! केवल इन अंगोपांगों का मात्र श्राकार ही था और वह आकार-चिन्ह भी उचित स्वरूप वाला नहीं था। तब मृगादेवी गुप्त भूमिगृह (मकान के नीचे का घर) में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस मृगापुत्र बालक का पालन पोषण करती हुई जीवन बिता रही थी।
टीका-श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रधान शिष्य जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं
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