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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित।
[२१
चल पड़े । उद्यान के समीप जा कर तीर्थाधिपति भगवान् वर्द्धमान के अतिशय विशेष को देखते हुए विजय नरेश अपने प्राभिषेक्य हस्तिरत्न-प्रधान हस्ती से उतर पड़े और पांच' प्रकार के अभिगम (मर्यादा विशेष, अथवा सम्मान सूचक व्यापार) से आपण भावान महावीर की सेवा में उपस्थित हर। तदनन्तर भगवान् को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर के प्रदक्षिणा की और तत्पश्चात् वन्दना नमस्कर करके कायिक वाचिक और मानसिकरूप में उन की पयपासना करने लगे।
"महावीरे जाव समोसरिते' यहां पर उल्लेख किये गये "जाय-यावत" पद से औपपातिक सूत्र के समस्त दशम सूत्र का ग्रहण करना। तथा 'जाव परिसा निग्गया' इस आगम पाठ में पटित "जाव-यावत्' पद से औपपातिक सूत्रीय २७ वां समग्र सूत्र ग्रहण करना चाहिये। इस सत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने के अनन्तर नगर में उत्पन्न होने वाले अानन्दपूर्ण शुभ वातावरण का, तथा नाना प्रकार के भिन्न २ वेष बनाकर एवं भिन्न भिन्न विचारों को लिये हुए नागरिकों का श्रमण भगवान् वीर प्रभु के चरणों में उपस्थित होने का सुन्दर रूपेण अथ च परिपूर्णरूपेण वर्णन किया गया है जो कि अवश्य अवलोकनीय है ।
"निग्गते जाव पज्जुवासति" यहां पर दिया गया "जाव-यावत्" पद औषपातिक सूत्र के २८ व सूत्र से ले कर ३२ वें सत्र पर्यन्त समस्त आगम पाठ का सचक है । इस पाठ में महाराजा कूणिक. अजातशत्र का प्रारम्भ से लेकर जिनेंद्र भगवान् महावीर स्वामी के चरणार्विन्दों में पूरे वैभव के साथ उपस्थित होने का सविस्तर वर्णन दिया गया है, जिस का विस्तार भय से यहां उल्लेख नहीं किया गया ।
"तते णं से जातिधे' इत्यादि पाठ में एक बूढे जन्मांध याचक व्यक्ति का वीर प्रभु के चरणों में पहुँचने का जो निर्देश किया है वह भी बड़ा रहस्य पूर्ण है। मानव हृदय की आन्तरिक परिस्थिति कितनी विलक्षण और अंधकार तथा प्रकाश पूर्ण हो सकती है इसका यथार्थ अनुभव किसी अतीन्द्रियदर्शी को ही हो सकता है ?
आज मृगाग्राम नाम के प्रधान नगर में चारों ओर बड़ी चहल पहल दिखाई दे रही है । प्रत्येक नर नारी का हृदय प्रसन्नता के कारण उमड़ रहा हैं। प्रत्येक स्त्री पुरुष बाल वृद्ध और युवक आनंद (१) पांच प्रकार के अभिगम सम्मानविशेष का निर्देश शास्त्र में इस प्रकार किया है
१-पुष्प, पुष्पमाला आदि सचित्त द्रव्यों का परित्याग करना। २ - वस्त्र, आभूषण आदि अचित्त द्रव्यों का परित्याग न करना। ३- एकशाटिका - अस्यूत वस्त्र का उत्तरासंग करना, अर्थात् उस से मुख को दांपना । ४-भगवान के दृष्टिगोचर होते ही अंजलीप्रग्रह करना अर्थात् हाथ जोड़ना।
- मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना। (२) कायिक-पर्युपासना-हस्त और पाद को संकोचते हुए विनय पूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भगवान् के सन्मुख सविवेक-विवेक पूर्वक स्थित होना कायिक पयुपासना कहलाती है।
वाचिक पर्युपासना-जिनेन्द्र भगवान् महवीर द्वारा प्रतिपादित हुए वचनों को सुनकर, भगवन् ! आपकी यह वाणी इसी प्रकार है, यह असंदिग्ध है, यह हमें इष्ट है, इस प्रकार विनयपूर्वक धारण करना वाचिक पय पासना है।
मानसिक पयुपासना- सांसरिक बन्धनों से भयरूप संवेग को धारण करना, अर्थात् धार्मिक तीव्र अनुराग को उपलब्ध करना ही मानसिक पर्युपासना कही जाती है।
[ औपपातिक-सूत्र, पर्युपासनाधिकार ]
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