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प्रथम अध्याया
हिन्दी भाषा टीका सहित।
कहा है। तात्पर्य यह है कि - जिप प्रमाण में अङ्ग' और उांग की रचना होनी चाहिये थी, उस प्रकार की रचना का उस (मृगापुत्र) के शरीर में अभाव था, जिस से उस की प्राकृति बड़ी बीभत्स एवं दुर्दर्शनीय बन गई थी।
सूत्रकार ने मृगापुत्र को "वायवे-वायव' भी कहा है । वायत्र शब्द से उन का अभिप्राय 'वातव्याधि से पीडित व्यक्ति' से है। वात-वायु के विकार से उत्पन्न होने वालो व्याधि-रोग का नाम वातव्याधि है। चरकसंहिता (चिकित्सा-शास्त्र) अध्याय २०, में लिखा है कि वात के विकार से उत्पन्न होने वाले रोग असंख्येय होते हैं, परन्तु मुख्यरूप से उन को (वातजन्य रोगों की) संख्या ८० है । नखभेद, विपादिका, पादशूल. पादभ्रंश, पादसुप्ति, ओर गुल्फग्रह इत्यादि ८० रोगों में से मृगापुत्र को कौनसा रोग था ? एक था या अधिक थे ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में सूत्रकार और टीकाकार दोनों ही मौन हैं । वात-व्याधि से पीडित व्यक्ति के पीठ का जकड़ जाना, गरदन का टेढ़ा होना, अंगों का सुन्न रहना, मस्तकविकृति इत्यादि अनेकों लक्षण चरक संहिता में लिखे हैं। विस्तार भय से यहां उन का उल्लेख नहीं किया जा रहा है। जिज्ञासु वहीं से देख सकते हैं।
__ अब सूत्रकार मृगापुत्र का वर्णन करने के अनन्तर एक जन्मान्ध पुरुष का वर्णन करते हैं -
मूल-तत्थ णं मियग्गामे नगरे एगे जातिअंधे पुरिसे परिवसति । से णं एगेणं मचवखुतेणं पुरिसेणं पुरतो दडएणं पगड्ढिज्जमाणे २ फुट्टहडाहड़सीसे मच्छियाचड़गरपहकरेणं अपिणज्जमाणमग्गे मियग्गामे णगरे गिहे गिहे कालुणवड़ियाए वित्तिं कप्पेमाणे विहरति । तेणं कालेणं तेणं समए समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिते । जाव परिसा निग्गया । तते णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे जहा कूणिए तहा निग्गते जाव पज्जुवासति, तते णं से जाति-अन्धे पुरिसे तं महया जणसद्द च जाव सुणेत्ता तं पुरिस एवं वयासी-किरणं देवाणुप्पिया ! अज मियग्गामे इंदमहे इ वा जाव निग्गछति ? तते णं से पुरिसे तं जातिअंध-पुरिसं एवं वयासी-नो खलु देवा० ! इंदमहे जाव निग्गए, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे जाव विहरति, तते णं एए जाव निग्गच्छन्ति । तते णं से जातिअंधपुरिसे तं पुरि एवं वयासी-गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! अम्हे वि समणं भगवं जाव पज्जुवासामो, तते णं से जाति-अंधपुरिसे पुरतो दंडएणं पगड्ढिज्जमाणे २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागते, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदतिनमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासति । तते णं समणे विजयस्स तीसे य धम्ममाइक्खा परिसा जाव पडिगया। विजए वि गए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेट्ठ अंतेवासी
(१) अंग शब्द से-१ -- मस्तक, २ - वक्षःस्थल, ३–पीठ, ४-पेट, ५,६-दोनों भुजाएं, और ७,८-दोनों पांव, इन का ग्रहण होता है, तथा उपांग-शब्द से अंग के अवयवभूत कान, नाक, नेत्र एवं अंगुली आदि का बोध होता है।
(२) छाया-तत्र मृगाग्रामे नगरे एको जात्यन्धः पुरुषः परिवसति । स एकेन सचक्षुष्केण पुरुषेण पुरतो दण्डेन प्रकृष्यमाणः २ स्फुटितात्यर्थशोवों मक्षिकाप्रधानसमूहेनान्वीयमानमार्गो मृगाग्रामे नगरे गृहे गृहे का
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