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श्रो विपाक सूत्र
। प्रथम अध्याय
(९) देवदत्ता-रोहीतक-नरेश पुष्यनन्दी की पट्टराणी थी। सिंह सेन के भव में इस ने अपनी प्रिया श्यामा के मोह में फंस कर अपनी मातृतुल्य ४९९ देवियों को आग लगा कर भस्म कर दिया था। इस क र कर से इत ने महान् पापकर्म उपार्जित किया । इस भव में भी इसने अपनी सास के गुह्य अंग में अग्नि तुल्य देदीप्यमान लोहदण्ड प्रविष्ट करके उस के जीवन का अन्त कर दिया । इस प्रकार के नृशंस कृत्यों से इसे दुःख सागर में डूबना पड़ा (१०) अज्ज-महाराज विजयमित्र को अवांगिणी थो। पृथियोश्री गणिका के भव में इस ने सदाचारवृक्ष का बड़ी क रता से समूलोच्छेद किया था, जिस के कारण इसे नरकों में दु:ख भोगना पड़ा और यहां भी इसे योनिशूल जैसे भयंकर रोग से पीड़ित हो कर मरना पड़ा।
प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में मृगापुत्र आदि के नामों पर हो अध्ययनों का निर्देश किया गया है । क्यों कि दश अध्ययनों में क्रमश इन्हीं दशों के जीवनवृत्तान्त की प्रधानता है । जैसे कि प्रधानरूप से राजकुमार मृगापुत्र के वृत्तान्त से प्रतिपद होने के कारण प्रथम अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से विख्यात हुआ. इसी भांति अन्य अध्ययनों के विषय में भी समझ लेना चाहिये।
____ भगवन् ! दुःखविपाक नाम के प्रथमश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम के अध्ययन का क्या अर्थ है अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया गया है ? जम्बूस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मास्वामी प्रथम अध्ययनगत विषय का वर्णन प्रारम्भ करते हैं, जैसे कि -- ___ मूल-'तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे णाम णगरे होत्था वण्ण प्रो। तस्म मियग्गामस्स बहिया उत्तरपुत्थिमे दिमीभाए चंदणपायवे णामं उज्नाणे होत्था । वएणो। मयोउय० वएणो। तत्थ णं सुहम्मस्म जक्खाययणे होत्था चिरातीए, जहा पुण्णभदं । तत्थ णं मियग्गामे णगरे विजए णाम खत्तिए राया परिवसति । वएणो । तस्स णं विजयस्स खत्तियस्म मिया णामं देवी होत्था, अहीण० । वएणो । तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए हात्था, जाति-अन्धे, जाति-मूए, जाति-वहिरे, जातिबंगले, हुण्डे य वायवे | नत्थि णं तस्स दारगस्म हत्था वा पाया वा करणा वा अच्छी वा नासा वा केवलं से तेसि अंगोरं गाणं 'आगिई आगितिमित्ते । तते णं सा मिया देवी तं मियापुत्त दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सि तेणं भत्तपाणएणं पडिजागरमाणी विहरति ।
(१) छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये मृगाग्रामो नाम नगरमभूत् । वर्णकः । तस्य मृगाग्रामस्य नगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिगभागे चन्दनपादपं नामोद्यानमभवत् । सर्वतु क. वर्णकः । तत्र सुधर्मणो यक्षस्य यता. यतनमभूत् , चिरा दकं. यथा पूर्णभद्रम्। तत्र मृगाग्रामे नगरे विजयो नाम क्षत्रियो राजा परिवसति । वर्णकः । तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य मृगा नाम देव्यभूत् , अहीन, वर्णकः । तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य पुत्रो मृगादेव्या श्रात्मजो मृगापुत्रो नाम दारकोऽभवत् । जात्यन्धो, जातिमूको जातियधिरो, जातिपगु लो, हुण्डश्च वायवः । न 'स्तस्तस्य दारकस्य हस्तौ वा पादौ वा कौँ वा अक्षिणी वा नापे वा । केवलं तस्य तेषामंगोपांगानामाकृतिराकृतिमात्रम् । ततः सा मृगादेवी तं मृगापुत्रं दारकं राह सके भूमिगृहे राहसिकेन भक्तपानकेन प्रतिजागरयन्ती विहति ।
(२) अङ्गावयवानामाकृतिराकारः, किंविवेत्याह -- प्राकृतिमात्रमाकारमात्रं नोचितस्वरूपेत्यर्थः ।
(१) स्तः के स्थान पर हैमशब्दानुशासन के “अस्थिस्यादिना ॥८।३।१४८ "इस सूत्र से 'अस्थि" यह प्रयोग निष्पन्न हुआ है । यहां अस्ति का अस्थि नहीं समझना ।
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