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श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
यावत् । अंज य-और अंजू । भंते ! -हे भगवन् ! । दुहविवागाणं -दुःख-विपाक के । पढमस्स - प्रथम । अझयणस्स-अध्ययन का। जाव- यावत् । संपत्तेणं-मोक्षसम्प्राप्त । समणेणं - श्रमण भगवान् महावीर ने । के अटे --क्या अर्थ । परणत्ते- कथन किया है । तते णं-तदनन्तर । से सुहम्मे अणगारे- वह सुधर्मा अनगार । जंबु अणगारं-जम्बू अनगार को। एवं - इस प्रकार । वयासी-कहने लगे। जम्बू !- हे जम्बू ! । खलु-निश्चयार्थफ है । एवं- इसप्रकार ।।
मला हे भगवन् ! प्रश्नव्याकरण नामक दशम अंग के अनन्तर मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत नामक एकाशवें अंग का क्या अर्थ फरमाया है ? तदनन्तर श्रार्य सुधर्मा अनगार ने जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा - हे जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने विपाकश्रत नामक एकादशवें अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रतिपादन किये हैं, जैसे कि-दुःखविपाक और सुखविपाक । हे भगवन् ! यदि मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने एकादशवे विपाकश्रुत नामक अंग के दो श्रुतस्कन्ध, फरमाये हैं, जैसे कि दुःखविपाक और सुखविपाक, तो हे भगवन् ! दुःख-विपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध में श्रमण भगवान् महावीर ने कितने अध्ययन कथन किये हैं ?, तदनन्तर इसके उत्तर में आर्य सुधर्मा अनगार जम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहने लगे-हे जम्बू ! मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं जैसे कि - मृगापुत्र (१) उज्झितक (२) अभग्न (३) शकट (४) बृहस्पति (५) नन्दी (६) उम्बर (७) शौरिकदत्त (८) देवदत्ता (E) और अञ्जू (१०) । हे भगवन् ! मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक के मृगापुत्र प्रादिक दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? उत्तर में सुधर्मा अनगार कहने लगे हे जम्बू ! उसका अर्थ इस प्रकार कथन किया है -- ।
टीका-श्री जम्बू स्वामी ने अपने सद्गुरु श्रीसुधर्मा स्वामी की पर्युपासना-सेवा करते हुए बड़े विनम्र भाव से उन के श्री चरणों में निवेदन किया कि हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रश्नव्याकरण नाम के दशवे अंग का जो अर्थ प्रतिपादन किया है वह तो मैंने अापके श्री मुख से सुन लिया है, अब आप यह बतलाने की कृपा करें कि उन्हों ने विपाकश्रुत नाम के ग्यारवें अंग का क्या अर्थ कथन किया है।।
जम्बू स्वामी के इस प्रश्न में विपाकश्रुत नाम के ग्यारवें अंग के विषय को अवगत करने की जिज्ञासा सूचित की गई है, जिस के अनुरूप ही उत्तर दिया गया है। “विपाश्रत' का सामान्य अर्थ है -विपाकवर्णन-प्रधान शास्त्र । पुण्य और पापरूप कर्म के फल को विपाक कहते हैं, उस के प्रतिपादन करने वाला श्रुत - शास्त्र विपाकश्रुत कहलाता है ? सारांश यह है कि जिस में शुभाशुभ कर्मफल का विविध प्रकार से वर्णन किया गया हो उस शास्त्र या आगम को विपाकत कहा जाता है।
यहां पर "समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं" इस वाक्य में उल्लेख किया गया "जाव-यावत्" यह पद भगवान महावीर स्वामी के सम्बन्ध में उल्लेख किये जाने वाले अन्य विशेषणों को सूचित करता है, वे विशेषण "आइगरेणं. तित्थगरेणं... इत्यादि हैं, जो कि श्री भगवती, समवायाज आदि सूत्रों में उल्लेख किये गये हैं, पाठक वहां से देख लेवे ।
प्राणि वर्ग के शुभाशुभ कर्मों के फल का प्रतिपादक शास्त्र आगम परम्परा में विपाकश्रु त के नाम से प्रसिद्ध है ', और यह द्वादशांग रूप प्रवचन-पुरुष का एकादशवां अंग होने के कारण ग्यारवें अंग के नाम
(१) विपाक : ... पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं -- 'अागमो' विपाकश्रुतम् [अभय देव सूरिः
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