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१४]
श्री विपाक सूत्र -
प्रथम अध्या
इस तर्क का उत्तर यह है कि प्रवृत्ति और उत्पत्ति में कार्य कारणभाव प्रदर्शित करने के लिये दोनों पद पृथक २ कहे गये हैं । कोई प्रश्न करे कि श्रद्धा में प्रवृत्ति क्यों हुई ? तो इसका उत्तर होगा कि, श्रद्धा उत्पन्न हुई थी । कार्य' - कारण भाव बतलाने से कथन में संगतता आती है, सुन्दरता आती है, और शिष्य की बुद्धि में विशदता श्राती है । कार्यकारणभाव प्रदर्शित करने से वाक्य अलंकारिक
जाता है । सादी और अलंकारयुक्त भाषा में अन्तर पड़ जाता है । अलंकारमय भाषा उत्तम मानी जाती है । अतएव कार्यकारण भाव दिखलाना भाषा का दूषण नहीं है, भूषण है । इस समाधान को साक्षी पूर्वक स्पष्ट करने के लिये साहित्य - शास्त्र का प्रमाण देखिए - प्रवृत्त - दीपामप्रवृत्तभा स्करां प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम्” अर्थात् जिस में दीपकों प्रवृत्ति हुई, सूर्य की प्रवृत्ति नहीं है ऐसी चन्द्रमा के प्रकाश वाली रात्रि समझी।
की
इस कथन में भी कार्यकारणभाव की घटना हुई है । “अप्रवृत्त - भास्करां" का बोध हो ही जाता है, क्योंकि सूर्य को जलाये जाते । ऋतः जब दीपक जलाए गए है तो सूर्य प्रवृत्त नहीं फिर भी यहां सूर्य की प्रवृत्ति का अभाव अलग कहा गया है । यह कार्यकारण भाव बतलाने के लिये ही है । कार्यकारण भाव यह कि सूर्य नहीं है अतः दीपक जलाए गये हैं ।
जैसे यहां कार्य कारणभाव प्रदर्शित करने के लिये अलग दो पदों का ग्रहण किया गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत प्रकरण भी कार्यकारणभाव दिखलाने के लिये ही "जायसड्ढे " और "उप्पन्नसड्ढे” इन दो पदों का अलग २ प्रयोग किया गया है। श्रद्धा में प्रवृत्ति होने से यह स्वतः सिद्ध है कि श्रद्धा उत्पन्न हुई लेकिन वाक्यालंकार के लिये जैसे उक्तवाक्य में सूर्य नहीं है यह दुबारा कहा गया है, उसी प्रकार यहां "श्रद्धा उत्पन्न हुई" यह कथन किया गया है।
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" प्रवृत्त - दीपाम्” कहने से प्रवृत्ति होने पर दीपक नहीं है, यह जानना स्वाभाविक है,
“जायसड्ढे” और “उत्पन्नसड्ढे " की ही तरह "जायसंस” और “उत्पन्नसंसए" तथा “जायको उहल्ले” और “उत्पन्न कोउ हल्ले" पदों के विषय में भी समझ लेना चाहिये।
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इन ६ पदों के पश्चात् कहा है- “संजायसड्ढे, संजायसंसए संजायकोउहल्ले" और "समुप्पन्नसड्ढे समुत्पन्नसंसय समुत्पन्नको हल्ले" । इस प्रकार ६ पद और कहे गये है ।
अर्वाचीन और प्राचीन शास्त्रों में शैली सम्बन्धी बहुत अन्तर है, प्राचीन ऋषि पुनरुक्ति का इतना ख्याल नहीं करते थे, जितना संसार के कल्याण का करते थे । उन्हों ने जिस रीति से संसार की भलाई अधिक देखी, उसी रीति को अपनाया और उसी के अनुसार कथन किया, यह बात जैनशास्त्रों के लिये ही लागू नहीं होती वरन् सभी प्रचीनशास्त्रों के लिये लागू है । गीता में अजन को बोध देने के लिये एक ही बात विभिन्न शब्दों द्वारा दोहराई गई है। एक सीधे सादे उदाहरण पर विचार करने से यह बात समझ में आ जायगी - किसी का लड़का सम्पत्ति लेकर परदेश जाता हो तो उसे घर में भी सावधान रहने की चेतावनी दी जाती है। घर बाहिर भी चेताया जाता है कि सावधान रहना और अन्तिम बार विदा देते समय भी चेतावनी दी जाती है । एक ही बात बार बार कहना पुनरुक्ति ही है लेकिन पिता होने के नाते मनुष्य अपने पुत्र को बार बार समझाता है । यही पिता पुत्र का सम्बन्ध सामने रख कर महापुरुषों ने शिक्षा की लाभप्रद बातों को बार बार दोहराया है। ऐसा करने में कोई हानि नहीं । वरन् लाभ ही होता है ।