Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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कालभेदाभावो नाथभेदहेतुर्गति जात्यादिवत् ॥ २६ ॥
जिन पदार्थों का काल एक है वे सब पदार्थ आपसमें अभिन्न- एक हैं यह बात अयुक्त है क्योंकि यह सभी को मालूम है कि जिस समय देवदत्त नामके पुरुषका जन्म होता है उसीके साथ मनुष्य, गति, पंचेंद्रिय, जाति, वर्ण गंध आदि भी उत्पन्न होते हैं वहाँपर यह वात नहीं कि मनुष्यगतिकी उत्पत्तिका काल- दूसरा और पंचेंद्रिय जाति वर्ण गंध आदिका काल दूसरा हो परन्तु सबकी उत्पत्तिका काल एक होनेपर भी देवदत्त मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति आदि पदार्थ एक नहीं होते, भिन्न भिन्न ही माने जाते हैं | यदि इसे कोई यह माने कि जिन पदार्थोंका काल एक है वे पदार्थ भी आपस में भिन्न नहीं, एक ही हैं उसे देवदच मनुष्यगति पंचेंद्रिय जाति आदि सभी साथ उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को एक मानना पडेगा किन्तु उनका एक होना किसीको इष्ट नहीं इसलिये यह बात सिद्ध हो चुकी कि ज्ञान और चारित्रकी उत्पतिका काल एक भी मान लिया जाय तो भी वे दोनों एक नहीं हो सकते, भिन्न १ ही मानने होंगे । और भी यह बात है कि1
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उक्तं च ॥ २७ ॥
द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा ज्ञान और चारित्र एक हैं एवं पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भिन्न भिन्न हैं यह वात ऊपर विस्तार से कही जा चुकी है इसलिये ज्ञान और चारित्रको सर्वथा एक वा सर्वथा अनेक न मानकर कथंचित् एक अनेक ही मानना युक्तियुक्त है । यदि यह कहा जाय कि - लक्षणभेदात्तेषामेकमार्गानुपपत्तिरिति चेन्न परस्परसंसर्गे सत्येकत्वं प्रदीपवत् ॥ २८ ॥
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जिन पदार्थों का लक्षण भिन्न भिन्न है किसी रूपसे वे एक नहीं कहे जा सकते । सम्यग्दर्शन
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भाग
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