Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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दोनों एक हैं तथा उन्हीं ज्ञान दर्शनमें द्रव्यार्थिक नयको गौणकर पर्यायार्थिक नयको जिससमय प्रधान माना जायगा उससमय द्रव्यकी ओर दृष्टि न जाकर पर्यायों की ओर दृष्टि जायगी और ज्ञान पर्याय भिन्न और दर्शन पर्याय भिन्न है यह बोध होगा इसलिये पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ज्ञान दर्शन दोनों भिन्न भिन्न हैं । इसलिये द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा ज्ञान दर्शनको कथंचित एक और कथंचित् अनेक ही मानना चाहिये सर्वथा एक मानना युक्ति और अनुभवसे बाधित है । यदि यह कहा जाय कि
ज्ञानचारित्रयोरकालभेदादेकत्वमगम्यावबोधवदिति चेन्नाशुत्पत्तौ
सूक्ष्मकालाप्रतिपत्तेरुत्पलपत्रशतव्यघनवत् ॥ २४ ॥
मोहके तीव्र उदयसे किसी पुरुषको परस्त्रीके साथ मैथुन करने की इच्छा हुई । मेघ के होने से अत्यंत अंधकारवाली रात्रि में वह परस्त्रीके पास चला । दैव योगसे उसकी मा भी व्यभिचारिणी थी वह भी उसी गली में आ पहुंची। दोनों का आपस में मिलाप हो गया । पुरुषने स्त्रीको व्यभिचारिणी जान उसके साथ रमण करने की इच्छा की और उसका स्पर्श करने लगा । अचानक ही विजलकेि चमकनेसे कुछ प्रकाश हुआ स्त्रीका मुख देखते ही उसे यह मालूम हुआ कि यह मेरी मा है, उसीसमय उसको यह ज्ञान भी हुआ कि यह मेरोलये अगम्य हैं - इसके साथ मेरा मैथुन करना योग्य नहीं और उसीसमय उसके साथ मैथुन करने की निवृत्ति भी हो गई इसलिये जिसतरह यहां पर माके साथ मैथुन करना अयोग्य है यह ज्ञान और मैथुन से निवृत्तिरूप क्रिया दोनों ही एक साथ हुए हैं इसलिये दोनों का काल एक है उसी तरह जिस कालमें ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे यह ज्ञान हुआ है कि ये जीव हैं उसीसमय 'उन्हें
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भाषा
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