Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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न मारना चाहिये' इस हिंसाकी भी निवृत्ति है। किंतु जीवोंके ज्ञानका काल और हिंसा निवृचिका कालाई भिन्न भिन्न नहीं तथा निवृचिका नाम चारित्र है इसरीतिसे ज्ञान और चारित्रकी उत्पत्तिका काल जब ला समान है तब ज्ञान और चारित्र दोनोंको एक ही मानना चाहिये भिन्न भिन्न मानना ठीक नहीं ? सो
भी अयुक्त है । क्योंकि जिसतरह एक साथ तर ऊपर रक्खे हुए कमलके सौ पत्रोंको एक ही समय | तलवार वा सूजा आदिसे छेदे जाने पर उनके छेदनेका एक ही समय जान पडता है किंतु वहां पर एक या पत्रके वाद दूसरे पत्रका छिदना उसके बाद तीसरे पत्रका छिदना इसप्रकार क्रमसे छिइनेमें असंख्यात
समय वीत जाते हैं, यहांतक कि एक पत्रके छिदनेके वाद दूसरे ही पत्रके छिदनेमें असंख्याते समय है। व्यतीत हो जाते हैं परंतु वह काल अत्यंत सूक्ष्म है सिवाय सर्वज्ञके कोई भी अल्पज्ञानी उसे जान नहीं || सकता इसलिये सौ पत्रोंके छेदनेका काल एक नहीं कहा जाता किंतु असंत सूक्ष्म कहा जाता है उसी-|| | प्रकार ज्ञान और चारित्रका काल भी एक नहीं किंतु अत्यंत सूक्ष्म है इसलिये एक सरीखा जान पडता || ॥ है। वास्तवमें 'माके साथ मैथुन करना अयोग्य है। इस ज्ञानका काल और मैथुनसे निवृत्तिका काल दोनों। || जुदे जुदे हैं इस रूपसे ज्ञान और चारित्रका जब समान काल सिद्ध नहीं होता तब दोनोंका एक काल || मानकर एक मानना यह वात भी मिथ्या है। और भी यह वात है
अर्थभेदाच ॥२५॥ ज्ञानका अर्थ तत्त्वोंका जानना है और चारित्रका जिन विशेष विशेष क्रियाओंसे कर्म आकर है आत्मामें संबंध करते हैं उन क्रियाओंका त्यागना यह अर्थ है। इस रूपप्ते ज्ञान और चारित्र दोनोंका अर्थ भिन्न भिन्न होनेके कारण वे दोनों भिन्न ही हैं एक नहीं हो सकते । तथा
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