Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 2
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अर्थकारणतावादा
त्पत्त्यभ्युपगमात् । नापि तद्ग्राहकं भवेत् ; अयोग्यत्वात् । न खलु तदुत्पन्नमपि सर्व वेत्ति; योग्यस्यैव वेदनात् । कारणेपि चैतच्चोद्य समानम् । तत्रापि हि कारणं कार्येणानुपक्रियमाणं यावत्प्रतिनियतं कार्यमुत्पादयति तावत्सर्वं कस्मान्नोत्पादयतीति चोद्य योग्यतव शरणम् । ततो ज्ञानस्यार्थान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात्कथं तत्कार्यता यतः "अर्थवत्प्रमाणम्" [ न्यायमा० पृ० ] १ इत्यत्र भाष्ये "प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरमव्यपदेश्याऽव्यभिचारिव्यवसायात्मके ज्ञाने कर्त्तव्येऽर्थसहकारितयार्थवत्प्रमाणम्" [ ] इति व्याख्या शोभेत ? तन्नार्थकार्यता विज्ञानस्य ।
नाप्यालोककार्यता ; अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां नक्तञ्चराणां चालोकाभावेपि ज्ञानोत्पत्ति
होता है कि कुभकारादि प्रतिनियत घट आदिको ही क्यों करता है अन्य सभी कार्य को क्यों नहीं करता ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये परवादीको योग्यता की ही शरण लेनी होगी, अर्थात् कुभकार आदि कारण में इतनी ही योग्यता है कि वह घट आदि कार्यको ही कर सकता है। अन्यको नहीं । ठीक इसी प्रकार ज्ञान भी अात्मासे उत्पन्न होकर अपने योग्य विषयको जानता है सभी को नहीं, ऐसा मानना होगा । इसलिये ज्ञानका पदार्थ और प्रकाशके साथ मन्वयव्यतिरेक नहीं होनेसे ज्ञान उनका कार्य नहीं कहला सकता । अतः निम्न लिखित कथन असत् ठहरता है कि "अर्थवत् प्रमाणम्" प्रमाण पदार्थ के सहकारितासे उत्पन्न होता है, इस न्याय सूत्र की व्याख्या है कि जो प्रमाता और प्रमेयसे पृथक् है । अव्यपदेश्य, निर्दोष, निश्चायक ज्ञान स्वरूप है एवं पदार्थको सहकारितासे उत्पन्न होता है वह प्रमाण कहलाता है ।
इसप्रकार पदार्थ ज्ञानका कारण है ऐसा कथन निराकृत होता है । अब यहां पर जो परवादी प्रकाश को ज्ञानका कारण मानते हैं उनका निरसन किया जाता है ज्ञान प्रकाशका भी कार्य नहीं है, क्योंकि जिनके नेत्र अंजन आदिसे संस्कारित हैं उन मनुष्योंके तथा बिलाव, सिंह आदि पशुओं के ज्ञानकी उत्पत्ति विना प्रकाशके भी होतो हुई देखी जाती है।
शंकाः-प्रकाशको ज्ञानका कारण नहीं मानते हैं तो हम लोगोंको अंधकार में ही ज्ञान हो जाना चाहिये ? किन्तु होता तो नहीं, प्रकाश रहता है तब हमें दिखायी देता है और प्रकाश नहीं होता तो दिखायी नहीं देता अतः उसके होनेपर
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