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अन्त्य - व्यंजन
संस्कृत के अन्त्य - व्यंजन पालि में लुप्त हो जाते हैं
भगवान्
भगवा
सम्यक्
विद्युत्
विज्ज़
पालि का शब्द-साधन और वाक्य - विचार
सम्मा
पालि के ध्वनि - समूह की अपेक्षा उसका रूप-विधान संस्कृत के और भी अधिक समीप है । मिथ्या सादृश्य के आधार पर संस्कृत रूपों का सरलीकरण पालि रूप-विधान की एक मुख्य विशेषता है। पहले कहा जा चुका है कि एक ही प्राचीन आर्य भाषा से संस्कृत और पालि दोनों का विकास हुआ है । संस्कृत व्याकरण का जन्म वैदिक भाषा की विभिन्नताओं को एकरूपता देने के लिये हुआ । अतः संस्कृत में ऐसे अनेक नियम व्याकरण के नियमानुसार वर्जित कर दिये गये, जो वैदिक भाषा में प्रचलित थे । पालि चूँकि लोक भाषा थी, उसमें ये प्रयोग चले आये हैं । यह पालि के रूप - विचार की एक मुख्य विशेषता है। उदाहरणों से यह स्पष्ट होगा ।
पहले मिथ्या सादृश्य के आधार पर रूपों के सरलीकरण को ले । पालि में संस्कृत की अपेक्षा वर्ण कम हैं, यह हम पहले निर्देश कर ही चुके हैं। संस्कृत में तीन वचनों का प्रयोग होता है, एक वचन, द्विवचन और बहुवचन | पालि में केवल दो वचन हैं। एक वचन और अनेक वचन । वहाँ द्विवचन नहीं है । उसका भी काम वहाँ अनेक वचन से ही निकाल लिया जाता है। यद्यपि कहने को पालि में भी सात विभक्तियाँ हैं, किन्तु उनके रूपों में बड़ी सरलता है । चतुर्थी और षष्ठी के रूपों में प्रायः कोई भेद नहीं होता । तृतीया और पंचमी के अनेक वचन के रूप भी प्रायः समान ही होते हैं । पालि में व्यंजनान्त पदों का प्रयोग भी नही होता । वहाँ सभी पद स्वरान्त हैं। संस्कृत के व्यंजनान्त पद भी पालि में स्वरान्त हो जाते हैं । इसी प्रकार मंज्ञा और सर्वनाम के रूपों में यही सरलीकरण की प्रवृति दृष्टिगोचर होती है । क्रिया - विभाग के विषय में भी यही बात ठीक है । संस्कृत के समान यद्यपि पालि में भी परस्मैपद ( परस्सपद) और आत्मनेपद, ( अत्तनोपद) ये दो पद हैं, किन्तु व्यवहार में आत्मनेपद का प्रयोग कदाचित् ही कभी होता हैं । यहाँ तक कि कर्मवाच्य आदि प्रयोगों में भी जहाँ संस्कृत में आत्मनेपद आवश्यक
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