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( १७१ ) ४. इन्द्रिय-संयुत्त-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा इन पाँच इन्द्रियों अथवा ज्ञान-शक्तियों का वर्णन है।
५. सम्मप्पधान-संयुत्त--जो चित्त-मल अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनकी उत्पत्ति को रोकना, जो चित्त-मल उत्पन्न हो चुके हैं उनको नष्ट करना, जो शुभ कर्म अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं उनको उत्पन्न करना, जो उत्पन्न हो चुके हैं उनको बढ़ाना, इन चार सम्यक्-प्रधानों या शुभ प्रयत्नों का यहाँ विस्तृत वर्णन किया गया है।
६. बल-संयुत्त-श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा, इन पाँच वलों का वर्णन है।
७. इद्धिपाद-संयुत्त-इच्छा-शक्ति (छन्द), वीर्य, चित्त और मीमांसा (वीमंसा) इन चार ऋद्धिपादों या योग-सम्बन्धी विभूतियों का वर्णन है ।
८. अनुरुद्ध-संयुत्त-शरीर, वेदना, मन और मानसिक धर्म, इन सब पर अद्भुत संयम प्राप्त कर किस प्रकार स्थविर अनिरुद्ध ने योग की विभूतियों को प्राप्त किया है, इसका वर्णन है।
९. झान-संयुत्त-ध्यान की चार अवस्थाओं का वर्णन है। वर्णन की भाषा बिलकूल वही है जो प्रथम दो निकायों में। किस प्रकार शील और सदाचार में प्रतिष्ठित होकर, एकान्त-वास का सेवन कर, साधक क्रमशः ध्यान की प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अवस्थाओं को प्राप्त करता है, इसका त्रिपिटक में प्रायः समान शब्दों में अनेक बार वर्णन किया गया है।' संक्षेप में हम यही कह सकते हैं कि प्रथम ध्यान की अवस्था में वितर्क, विचार, प्रीति, सुख और एकाग्रता रहते। द्वितीय ध्यान की अवस्था में वितर्क और विचार का प्रहाण हो जाता है और केवल समाधि से उत्पन्न प्रीति और सुख रहते हैं। तृतीय ध्यान की अवस्था में प्रीति और सुख से भी उपेक्षा हो जाती है और साधक उपेक्षा
और स्मृति के साथ ध्यान करने लगता है। चतुर्थ ध्यान में चूंकि सुख-दुःख, सौमनस्य, दौर्मनस्य पहले से ही अस्त हुए रहते हैं, अतः साधक न दुःख और न सुख वाले तथा स्मृति और उपेक्षा से शुद्ध, इस ध्यान को प्राप्त करता है।
१. मिलाइये आनापान-सति सुत्त (मज्झिम. (३।२।८)