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( २४० ) को बतलाया गया है । वसल सत्त में हम अग्नि-भारद्वाज नामक ब्राह्मण को भगवान् के प्रति यह कहते सुनने है "मुण्डक ! वहीं ठहर ! श्रमण वहीं ठहर ! वृषल वहीं ठहर ! (तत्रैव मुण्डक, तत्रैव समणक, तत्रैव बसलक निट्ठाहीति) । भगवान् ने बिना क्रोध किए उस अग्निहोत्री ब्राह्मण को बतलाया कि वृषल किसे कहते हैं। लज्जित होकर ब्राह्मण भगवान बुद्ध का जीवन-पर्यन्त उपासक (गृहस्थ-शिष्य) बना । हेमवत सत्त में भगवान् बुद्ध के स्वभाव का वर्णन है । अन्य अनेक बातों के साथ कहा गया है कि उनका ध्यान कभी रिक्त नही होता--बुद्धो झानं न रिञ्चति । इसी प्रकार भगवान बुद्ध के विषय में कहा गया है :
"उनका चित्त समाधिस्थ है। सब प्राणियों के प्रति वे एक समान है। इष्ट और अनिष्ट विषयक संकल्प उनके वश में है ।" आलवक सत्त आलवक यक्ष के साथ भगवान् का संवाद है, जिसकी तुलना महाभारत में युधिष्ठिर और यक्ष के संवाद से की जा सकती है। यक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में कि सब रसों में कौन सा रस उत्तम है (किं स हवे सादुतरं रसानं) भगवान् ने कहा है 'सच्चं हवे सादुतरं रसानं' अर्थात् सत्य ही सब रसों में उत्तम है।
ब्राह्मण बावरि और उनके शिष्यों के भगवान् से संवाद तो विश्व के दार्शनिक काव्य के सर्वोत्तम उदाहरण कहे जा सकते हैं । इमी प्रकार पब्बज्जा, पधान
और नालक मन भी अपनी आख्यानात्मक गीतात्मकता के साथ साथ दार्शनिक गम्भीरता में अपनी तुलना नहीं रखते । सन-निपात की विषय-वस्तु पाँच वर्गों में विभक्त है (१) उग्गवग्ग (२) चूल वग्ग (३) महावग्ग (४) अट्ठकवग्ग और (५) पारायण वग्ग । प्रथम वग्ग में १२ सुत्त हैं, यथा (१) उरग (२) धनिय (३) खग्गविमाण (४) कसि भारद्वाज (५) चुन्द (६) पराभव (७) वसल (८) मेत्त (९) हेमवत (१०) आलवक (११) विजय और (१२) मुनि । द्वितीय वर्ग में १४ सुत्त है, यथा (१) रतन (२) आमगन्ध (३) हिरि (४) महामंगल (५) मुचिलोम (६) धम्मचग्यि (७) ब्राह्मण-धम्मिय, (८) नावा (९) किमील (१०) उट्ठान (११) गहल (१२) वंगीम (१३) सम्मापरिबाजनिय और (१४) धम्मिक । तीसरे वर्ग में १२ सन है. यथा (१) पत्रज्जा (२) पधान (३) सुभासित (४) सुन्दरिक भारद्वाज (५) माघ (६) समिय (७) सेल, (८) सल्ल