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लिए, जिमकी महत्ता मभी लौकिक और पारलौकिक उद्देश्यों को अतिक्रमण करती है, कितना आवश्यक था, इसका सर्वोत्तम दर्शन हमें बद्ध-उपदेशों में ही होता है। स्वभावतः शास्ता के धम्म और विनय दोनों एक चीज है, एक ही वस्तु के दो पहलू है। उनके सामासिक स्वरूप 'यम्म-विनय' का भी यही रहस्य है।
जब कि बुद्ध-मन्तव्य के अनुसार धम्म और विनय का एक मा ही महत्त्व है, "विनय-पिटक' के नियम नास्ता के शासन के बाहरी रूप मात्र है। उनका मानसिक अाधार निश्चित होते हा भी स्वयं उनका प्रजापन उम अवस्था का नत्रक है जब मंच में प्रविष्ट कुछ अ-संयमी भिक्षु तथागत-प्रवेदित धर्म के विरुद्ध आचरण करने लगे थे। जब तक यह बात नहीं हुई तथालत को नियम विधान करने की आवश्यकता नहीं हुई। धर्मसेनापति के साथ भगवान् के इस संलाप मे यह बात स्पष्ट होगी। धर्मसेनापति सारिपुत्र भगवान् मे प्रार्थना करते है “भन्ने ! भगवान् गिष्यों के लिए शिक्षा-पद का विधान करें, प्रातिमोभ का उपदेश करें, जिससे कि यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो।" भगवान कहते हैं, "सारिपुत्र ! ठहरो, नथागत काल जानेंगे। सारिपुत्र ! शास्ता तब तक धावकों (शियों) के लिए शिक्षा-पद का विधान नही करते. प्रातिमोक्ष का उपदेश नहीं करते, जब तक कि संघ में कोई चित्त-मल वाले धर्म (पदार्थ) उत्पन्न नहीं होते । मारिपुत्र ! जब यहाँ संघ में कोई चित्त-मल को प्रकट करने वाले धर्म पैदा हो जाते हैं, तो उन्हीं का निवारण करने के लिए, उन्हीं के प्रतिघात के लिए, भास्ता धावकों को शिक्षा-पद का विधान करते है, प्रातिमोक्ष का उपदेश करने है. . . . . . . . (अभी तो) सारिपुत्र ! संघ मल-हित, दुष्परिणाम-रहित, कालिमा-रहित, शुद्ध, सार में स्थित है। इन पाँच मौ भिक्षुओं में जो मव मे पिछड़ा भिक्षु है, वह भी स्रोत-आपत्ति फल को प्राप्त, दुर्गति से रहित और स्थिर संबोधि-परायण है। "१ अतः निश्चित है कि विनय सम्बन्धी नियमों का उपदेश जैसे कि वे विनय-पिटक में निहित हैं, भगवान के द्वारा 'धर्म' के वाद दिया गया जब कि अधिक मल-ग्रस्त व्यक्ति उसके आधार पर अपना सधार नहीं कर सके।
१. विनय-पिटक, पाराजिका १